कौरवी बोली

हिन्दी भाषा की बोली

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कौरवी
खड़ी बोली
बोलने का  स्थान भारत
क्षेत्र दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश (रोहिलखंड), राजस्थान, उत्तराखंड
मातृभाषी वक्ता ?
भाषा परिवार
भाषा कोड
आइएसओ 639-3
भाषावेधशाला 59-AAF-qd
Indic script
Indic script
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कौरवी बोली, खड़ी बोली या दिल्ली बोली दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्रों में बोली जानेवाली मध्य हिंद-आर्य बोलियों में से एक है। पड़ोस की अवधी, भोजपुरी और ब्रज बोलियों के साथ 900 से 1200 के बीच विकसित इस बोली में स्वनों के दोहराव जैसी विशेषताएँ मौजूद हैं जो इसे मानक हिंदुस्तानी, ब्रज और अवधी से अलग करते हैं। पुरानी कौरवी से पुरानी हिंदी का विकास हुआ जिनसे हिंदुस्तानी और बाद में हिंदी और उर्दू का विकास हुआ।[1][2]

भौगोलिक वितरण

खड़ी बोली दिल्ली और वायव्य उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों के साथ ही पड़ोस में हरियाणा और उत्तराखंड में बोली जाती है।[3] उत्तर भारत के इस क्षेत्र को आम तौर पर दोआब कहा जाता है।

हरियाणा के निम्न ज़िलों में खड़ी बोली का उपयोग किया जाता है:

उत्तर प्रदेश में गंगा-यमुना दोआब के निम्न ज़िलों में खड़ी बोली का उपयोग किया जाता है:

गंगा के पार उत्तर प्रदेश के रोहिलखंड क्षेत्र के निम्न ज़िलों में खड़ी बोली का उपयोग किया जाता है:

उत्तराखंड में गंगा-यमुना दोआब के निम्न ज़िलों में खड़ी बोली का उपयोग किया जाता है:

गंगा के पार उत्तराखंड के निम्न ज़िलों में खड़ी बोली का उपयोग किया जाता है:

हिंदुस्तानी चलित संस्कृति में खड़ी बोली

मानक हिंदुस्तानी के अधिकतम वक्ता खड़ी बोली को देहाती मानते हैं और भारत के पहले धारावाहिक हम लोग में पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आया प्रमुख पात्र का परिवार अपने दैनिक संवादों में इधर-उधर खड़ी बोली का उपयोग करता है।[4][5]

उत्तर प्रदेश और नज़दीक के दिल्ली क्षेत्र की प्रमुख हिंदुस्तानी बोलियों के नाते से आम तौर पर खड़ी बोली और ब्रज भाषा की तुलना की जाती है। एक अवधारणा अनुसार ब्रज भाषा की "मधुर और कोमल प्रवाह" की तुलना में खड़ी बोली की "कठोर और देहाती गति" को मद्द-ए-नज़र में रखते हुए खड़ी बोली नाम की व्युत्पत्ति हुई।[6] दूसरी ओर, खड़ी बोली के समर्थक कभी-कभी ब्रज भाषा और हिंदुस्तानी की अन्य बोलियों को पड़ी बोली भी कहते हैं।[6]

कौरवी और सांकृत्यायन का प्रस्ताव

हालाँकि अधिकतम भाषाविद स्वीकारते हैं कि मानक हिंदी खड़ी बोली की संतति है, खड़ी में व्याप्त स्वनों के दोहराव हटकर खड़ी से वर्तमान की प्रतिष्ठामय बोली तक के बदलाव के विषय में भाषाविदों के बीच भी एकमत नहीं हैं। खड़ी बोली के उपयोग होनेवाले क्षेत्रों में भी स्वयं अभिधान और स्वरविज्ञान में अंतर पाए जाते हैं। बीसवीं सदी के मध्य में भारतीय विद्वान और राष्ट्रवादी राहुल सांकृत्यायन ने हिंदुस्तानी क्षेत्र के मानचित्र फिर से बनाने की बनाने का प्रस्ताव रखा।[7] दिल्ली की खड़ी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सबसे पश्चिमी क्षेत्रों की खड़ी के बीच भेद करकर उनहोंने दिल्ली के लिए खड़ी बोली नाम बरक़रार रखते हुए पश्चिमी उत्तर प्रदेश की बोली को प्राचीन भारत के कुरु राज्य से कौरवी बुलाने का सुझाव दिया।[7] हालाँकि खड़ी बोली नाम को अभी भी पुराने तौर पर उपयोग किया जाता है, कुछ भाषाविदों ने दिल्ली के पूर्वी और ईशान्य क्षेत्रों में अवस्थित सहारनपुर से आगरा तक की बोली के लिए कौरवी के उपयोग को मान्यता देना शुरू किया है।[8] सांकृत्यायन के अनुसार यह कौरवी बोली से ही दिल्ली की खड़ी बोली की उत्पत्ति हुई है।[7] सांकृत्यायन ने सभी हिंदुस्तानी बोलियों को देवनागरी लिपि में मानकीकृत करकर फ़ारसी-अरबी लिपि को हटाने के लिए वकालत की थी।[7]

हिंदुस्तानी की अन्य बोलियाँ

खड़ी बोली मानक हिंदी, उर्दू, दक्खिनी और रेख़्ता करकर उत्तर भारत और पाकिस्तान की संपर्क भाषा, हिंदुस्तानी, की चार प्रयुक्तियों से संबंधित है। मानक हिंदी भारत की एकमात्र राजभाषा और विभिन्न आधिकारिक भाषाओं में से एक है, मानक हिंदी पाकिस्तान की राजभाषा और राष्ट्रीय भाषा है, दक्खिनी दक्खन क्षेत्र की ऐतिहासिक साहित्यिक बोली है और रेख़्ता मध्यकालीन काव्य की "मिश्रित" हिंदुस्तानी है।[9] सांसी बोली के साथ ये प्रयुक्तियाँ हिंदुस्तानी बोली समूह बनाती हैं। ब्रज भाषा, हरियाणवी, कन्नौजी और बुंदेली के साथ यह समूह हिंदी भाषाओं के पश्चिमी बोली समूह बनाता है।

पूर्वकालीन प्रभाव

दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्र प्राचीन कालों से ही उत्तर भारत में सत्ता का केंद्रबिंदु रहा है और इसीलिए स्वाभाविक तौर पर विशेषकर उन्नीसवीं सदी से खड़ी बोली को हिंदी के अन्य बोलियों से उच्च दर्जा दिया जाने लगा। उससे पहले साहित्य के लिए अवधी, ब्रज और सधुक्कड़ी जैसी बोलियों को मान्यता दी जाती थी। मानक हिंदुस्तानी का विकास तब होने लगा जब विशेषकर अमीर ख़ुसरो जैसे फ़ारसी खड़ी बोली के वक्ता दिल्ली से अवध में प्रवास करकर खड़ी बोली की कठोरता को अवधी की नम्रता के साथ मिलाकर हिंदवी नामक नई भाषा की रचना की। सो भाषा को हिंदुस्तानी के नाम से भी जाना जाता था और समय के साथ सो भाषा हिंदी और उर्दू में बँट गई।

हालाँकि बोली के तौर पर खड़ी बोली ऊपरी दोआब में प्रचलित है, इलाहाबाद और वाराणसी के सांस्कृतिक मंडलों में हिंदवी का विकास हुआ।

मानक हिंदुस्तानी के आधार के तौर पर उदय

अमीर ख़ुसरो (1253–1325) की कृतियों में प्रारंभिक चरण की खड़ी बोली के उदाहरण पाए जा सकते हैं।[10]

खड़ी बोली के उदय से पहले भक्ति आंदोलन के अंतर्गत कृष्ण के भक्तों द्वारा प्रयुक्त ब्रज, राम के भक्तों द्वारा प्रयुक्त अवधी और विष्णु के बिहारी भक्तों द्वारा प्रयुक्त मैथिली को हिंदी की साहित्यिक बोलियों के तौर पर उपयोग किया जाता था।[10] तथापि, भक्ति आंदोलन कर्मकांडी होने के बाद इन बोलियों को देहाती कहलाया गया।[11] दूसरी ओर, खड़ी बोली मुग़ल अदालतों के आस-पास के शहरी क्षेत्रों में उपयोग होने लगी जहाँ फ़ारसी को मानक भाषा का दर्जा दिया गया था। यथाक्रम फ़ारसीकृत खड़ी बोली प्रतिष्ठामय मानी जाने लगी हालाँकि भारत में ब्रिटिश राज से पहले खड़ी बोली में साहित्य रचना अनसुनी थी।[11]

खड़ी बोली पर आधारित आधुनिक मानक हिंदुस्तानी की रचना और प्रचार में भारत में रहे ब्रिटिश प्रशासकों और ईसाई प्रचारकों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।[8] 1800 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने कलकत्ता में उच्च शिक्षा हेतु फ़ोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की जहाँ पर कॉलेज के सभापति जॉन गिलक्रिस्ट ने अध्यापकों को अपनी मातृभाषा में लिखने का प्रोत्साहन दिया। परिणाम के तौर पर लल्लू लाल की प्रेमसागर,[12] सदल मिश्र की नासिकेतोपाख्यान, मुंशी सदासुखलाल की सुखसागर और इंशाल्लाह ख़ान की रानी केतकी की कहानी जैसी कृतियों की रचना हुई। अट्ठारवीं सदी की शुरुआत में रचित गंगभट्ट की चंद छंद बरनन की महिमा, रामप्रसाद निरंजनी की योगवशिष्ठ, जटमल की गोरा बादल की कथा, अज्ञानकृत लेखक की मंडोवर का वर्णन और दौलत राम द्वारा रविषेण के जैन पद्म पुराण के अनुवाद जैसी कृतियों में भी खड़ी बोली की और विकसित रूप देखा जा सकता है। सरकारी प्रश्रय और साहित्यिक ख्याति की वजह से अवधी, ब्रज और मैथिली जैसी अतीत में प्रसिद्ध साहित्यिक भाषाओं के उपयोग कम होने के बावजूद खड़ी बोली का अधिक विस्तार हुआ। उन्नीसवीं सदी के दूसरे हिस्से से खड़ी बोली में साहित्य रचना में वृद्धि हुई।[10] विख्यात भारतीय राजा शिवप्रसाद हिंदी, विशेषकर खड़ी बोली, के प्रचारक थे। आगामी वर्षों में खड़ी बोली के आधार पर मानक हिंदुस्तानी का विकास हुआ जिसे विद्यालयों और आधिकारिक कामों में उपयोग किया जाने लगा।[13]

उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में उर्दू, खड़ी बोली की भारी तौर पर फ़ारसीकृत रूप, ने उत्तर भारत में स्थानिक प्रशासन की आधिकारिक भाषा के तौर पर फ़ारसी को प्रतिस्थापित किया। तथापि, उर्दू और इस्लाम की घनिष्ठता की वजह से हिंदुओं ने खड़ी बोली को संस्कृतीकृत करकर मानक हिंदी की रचना की।[13] 1947 में भारत के स्वतंत्रता के बाद खड़ी बोली पर आधारित हिंदी को आधिकारिक मान्यता के साथ राजभाषा का दर्जा दिया गया।

इन्हें भी देखें

संदर्भ

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