षाड्गुण्य

षाड्गुण्य भारतीय राजनीति का मौलिक सिद्धान्त है, जिसमें राजा को संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और संश्रय गुणों को ग्रहण करने का परामर्श दिया गया है। 'षाड्गुण्य' का शाब्दिक अर्थ है - (१) छः गुणों का समुच्चय (२) किसी भी चीज़ का ६ से गुणा करना। राजनीति में षड्गुण का अर्थ है, राजनीति की छः बातें—संधि, विग्रह, यान (चढ़ाई), आसन (विराम), द्वैधीभाव और संश्रय । जो राजा षाड्गुण्य नीति का उचित प्रयोग करता है वह सफलता प्राप्त करता है। इसके विपरीत आचरण करने वाले राजा का नाश होता है।

षाड्गुण्य का वर्णन मनुस्मृति, कौटिल्य के अर्थशास्त्र, महाभारत, हरिवंश पुराण (विष्णु पर्व ३९.७), अग्निपुराण (२३४.१७ ), कथासरित्सागर, पंचतंत्र, शिशुपालवध सहित कई ग्रन्थों में आया है।

मनु ने कहा है-

संधिं च विग्रहं चैव यानमासनमेव च।
द्वैधीभावं संश्रयं च षड्गुणांश्चिन्तयेत्सदा॥ मनुस्मृति ७.१६०
अर्थ : सन्धि (मेल-मिलाप), विग्रह, (विरोध), यान (शत्रु के देश पर चढ़ाई करना), आसन (उपेक्षण), द्वैधीभाव (बल का दो भागों में बाँटना) और संश्रय (शत्रु से सताये जाने पर प्रबल राजा का आश्रय लेना), इन छः गुणों को सदा सोचना चाहिये।
आसनं चैव यानं च संधिं विग्रहमेव च।
कार्यं वीक्ष्य प्रयुञ्जीत द्वैधं संश्रयमेव च॥ मनुस्मृति ७.१६१
अर्थ - कर्तव्य के अनुसार ही आसन, आक्रमण, सन्धि, विग्रह, विभेद और संश्रय का प्रयोग करे।

अर्थशास्त्र में षाड्गुण्य का वर्नन इस प्रकार से किया गया है-

षाड्गुण्यस्य प्रकृति-मण्डलं योनिः ।। ०७.१.०१ ।।
संधि-विग्रह-आसन-यान-संश्रय-द्वैधीभावाः षाड्गुण्यम्" इत्याचार्याः ।। ०७.१.०२ ।।
द्वैगुण्यम्" इति वात-व्याधिः ।। ०७.१.०३ ।।
संधि-विग्रहाभ्यां हि षाड्गुण्यं सम्पद्यते" इति ।। ०७.१.०४ ।।
षाड्गुण्यं एवएतदवस्था-भेदादिति कौटिल्यः ।। ०७.१.०५ ।।
तत्र पण-बन्धः संधिः ।। ०७.१.०६ ।।
अपकारो विग्रहः ।। ०७.१.०७ ।।
उपेक्षणं आसनं ।। ०७.१.०८ ।।
अभ्युच्चयो यानं ।। ०७.१.०९ ।।
पर-अर्पणं संश्रयः ।। ०७.१.१० ।।
संधि-विग्रह-उपादानं द्वैधीभावः ।। ०७.१.११ ।।
इति षड्गुणाः ।। ०७.१.१२ ।।

"शमः सन्धिः" अर्थात् शान्ति ही सन्धि है । कौटिल्य पुनः कहते हैं - पणबन्धः सन्धिः (६.१.६ ) अर्थात कुछ शर्तें आपस में निश्चित करके विवाद को सुलझाना। कौटिल्य व अन्य राजनीतिक विचारकों ने अनेक प्रकार की संधियों का निरूपण किया है। अनेक बार सन्धि बलवान शत्रु को भूमि, सोना या सेना देकर सन्धि करनी पड़ती है। विग्रह की परिभाषा है "अपकारो विग्रहः" (६.१.७) अर्थात नाना प्रकार से शत्रु की हानि करना । आसन का अर्थ है "उपेक्षणमासनम्" (६.१.८) उपेक्षा करना अर्थात शत्रु की गतिविधियों के विरुद्ध कोई जवाबी कार्रवाई न करना - उपायानामप्रयोगः (६.४.६) । यान का अर्थ है "अभ्युच्चयो यानम् " (६.१.६) अर्थात् स्वयं को शत्रु की तुलना में और अधिक समृद्ध करना या साधन संपन्न बनाना। कई स्थलों पर इसका अर्थ शत्रु देश की ओर सेना भेजना भी है। शत्रु की सेना को आता देख कमजोर देश बिना युद्ध के ही डर जाते हैं। द्वैधीभाव का अर्थ है "सन्धिविग्रहोपादानम् " (१.११) अर्थात् संधि और विग्रह दोनों नीतियों को एक साथ अपनाना । कहीं सेना को दो भागों में बाँटकर शत्रु पर सामने व पीछे से दो तरफ से आक्रमण करने को भी द्वैधीभाव कहा गया है। संश्रय की परिभाषा है - "परापर्णं संश्रयः" (६.१. १०) अर्थात् किसी अन्य राजा के आगे समर्पण कर देना। वस्तुतः ये छः गुण युद्ध के ही विविध आयाम हैं। युद्ध, शत्रु देश पर विजय प्राप्त करने का एक मात्र उपाय नहीं है और न ही सेना लेकर युद्ध क्षेत्र में शत्रु का मुकाबला करना ही युद्ध है। सन्धि या समझौता भी युद्ध नीति का हिस्सा है। कौटिल्य का स्पष्ट विचार है कि सन्धि तभी करनी चाहिये जब कोई राजा स्वयं कमजोर हो। और सन्धि की शर्तें केवल तब तक माननी चाहियें जब तक अपनी स्थिति सुदृढ न हो जाये । एक बार जब कोई देश शक्तिशाली हो जाये तो उसे निस्संकोच संधि को तोड़ देना चाहिये। राजनीति में कोई स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता । मित्रता भी अपना स्वार्थ सिद्ध करने का साधन है ।

गुणों के प्रयोग के विषय में मूलभूत सिद्धांत देते हुए कौटिल्य कहते हैं जब जिस गुण से राजा अपने संसाधनों का विकास व शत्रु के संसाधनों का विनाश कर सके - वही गुण श्रेष्ठ है- यस्मिन् गुणे वा स्थितः पश्येत्- इहस्थः शक्ष्यामि दुर्गदृसेतुकर्मदृवणिक्पथदृ शून्यनिवेशदृ खनिदृद्रव्यहस्तिवनदृ कर्माण्यात्मनः प्रवर्तयितुं परस्य चौतानि कर्माण्युपहन्तुं तमातिष्ठेत । (६.१.२०) अर्थात् जिस गुण के विषय में राजा यह सोचे कि इस गुण में रहकर मैं अपने दुर्गों, बाँधों, व्यापार मार्गों, नई बस्तियों, द्रव्य वनों व हस्तिवनों को पुष्ट कर सकूँगा और शत्रु के इन संसाधनों को क्षीण कर सकूँगा उस गुण को अपनाना चाहिये ।

षड्गुण के संदर्भ में चाणक्य ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति व अपने देश में नीति के संबंध के विषय में कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण बातें बताई हैं । कोई देश बाहर से शत्रु का तब तक मुकाबला नहीं कर सकता जब तक वह भीतर से मजबूत न हो। किसी बलहीन देश से तो कोई अन्य देश सन्धि भी नहीं करेगा क्योंकि तेज ही संधान का कारण है "तेजो हि सन्धान कारणम्" (७.३.३६) । अर्थात् आग से गरम होकर लोहा भी जुड़ जाता है। विशेष रूप से अगर देश के लोग ही शत्रु का साथ दें तो कोई देश बच नहीं सकता । और यह भी ध्यान रखना चाहिये कि शत्रु, नागरिकों व अधिकारियों आदि को भड़काने व उकसाने की कोशिश करेगा। इसलिये चाणक्य ने कहा है कि राजा को चाहिये कि वह अपने देश के लोगों को सुखी रखे और अपने देश को हर तरह से मजबूत । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सफलता के लिये भीतरी शत्रुओं का निग्रह आवश्यक है। भीतरी शत्रु बाह्य शत्रु से अधिक घातक होते हैं – "अहिभयात् आभ्यन्तरकोपो बाह्यकोपात् बलीयान् "(८.२.३) अर्थात् जैसे भीतर पले साँप भीतर से ही काट लेते हैं वैसे ही अन्दरूनी शत्रु भीतर से घात करते हैं और उनका पता भी नहीं चलता । इसलिये भीतरी शत्रु अधिक घातक होते हैं।

राजा का उद्देश्य होता है- शत्रु को अपने प्रभाव क्षेत्र में लाना। इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही नीति निर्धारण करना चाहिये। राजा का प्रयोजन अपने प्राण या राज्य गँवाना नहीं हो सकता । अतः व्यर्थ अपना सीना फुलाने में या मिथ्या गौरव में कोई समझदारी नहीं। इसलिये कौटिल्य कहते हैं कि विग्रह की नीति बहुत अच्छी नहीं है, इसलिये जहाँ तक हो सन्धि करनी चाहिये तथा युद्ध से बचना चाहिये । षाड्गुण्य अधिकरण के दूसरे अध्याय के दूसरे सूत्र में आचार्य कहते हैं कि युद्ध करने में तीन दोष हैं – क्षय, व्यय और प्रवास । अर्थात् युद्ध से बहुत बर्बादी होती है, बहुत खर्चा होता है तथा राजा को लंबे समय तक देश से बाहर रहना पड़ता है। इसलिये कौटिल्य ने कहा है कि जब स्वयं को शत्रु की अपेक्षा निर्बल समझे तो संधि कर ले। आचार्य ने एक बहुत रोचक उपमा से यह तथ्य समझाया है – कम शक्तिशाली राजा यदि अधिक शक्तिशाली से युद्ध करने लगे तो यह वैसा ही होगा जैसा एक पैदल सैनिक का हाथी से लड़ जाये "विगृहीतो हि ज्यायसा हस्तिना पादयुद्धमिवाभ्युपैति" (६.३.३)। यदि स्वयं शक्ति संपन्न होने के कारण अपने आप को शत्रु से बलवान समझे तो विग्रह करे। यह मिट्टी के घड़े को पत्थर से टकराने के बराबर होगा - "कुम्भेनेवाश्मा हीनेनैकान्तेसिद्धिमभ्युपैति" (६.३.५) । अपने बराबर शक्तिशाली राजा से युद्ध दो कच्चे घड़ों को टकराने जैसा है जिससे दोनों ही फूट जाते हैं - "समेन चामं पात्रमामेनाहतमिवोभयतः क्षयं करोति" (६.३.४ ) । जब उसको लगे कि न तो शत्रु प्रबल है और न मैं प्रबल हूं, न मैं उसको हरा सकता हूं न वह मुझे हरा सकता है - ऐसे में आसन का प्रयोग करे । जब राजा को लगे इस समय मेरी सेना व मेरा देश सबसे अधिक समृद्ध है तो यान का प्रयोग करे। जब राजा को लगे कि इस समय मैं बहुत कमजोर हूं तो किसी प्रबल राजा का आश्रय ले । यदि लगे कि किसी कार्य में अन्य सहायकों की आवश्यकता तो उनके साथ संधि करे तथा शत्रु से विग्रह ।

किसी भी गुण के तीन परिणाम हो सकते हैं वृद्धि, क्षय और स्थान। वृद्धि का अर्थ है - बढ़ोतरी, कल्याण या लाभ । क्षय का अर्थ है हानि तथा स्थान का अर्थ है वहीं टिके रहना अर्थात न लाभ होना न हानि। एक बुद्धिमान राजा को निरंतर यह आकलन करते रहना चाहिए कि किस नीति के प्रयोग से उसकी अपनी वृद्धि होगी और शत्रु की वृद्धि नहीं होगी या अपना क्षय नहीं होगा और शत्रु का क्षय होगा या किस नीति के प्रयोग से न अपना न शत्रु का न लाभ होगा न हानि । कौटिल्य कहते हैं कि राजा को छः गुणों का इस तरह प्रयोग करना चाहिये जिससे वह क्षय की अवस्था से स्थान की स्थिति तक और स्थान से वृद्धि तक पहुँच सके-

एवं षड्भिर्गुणैरेतैः स्थितः प्रकृतिमण्डले ।
पर्येषेत क्षयात्स्थानं स्थानाद् वृद्धिं च कर्मसु ॥ (७.१.६४)

यह आकलन करते समय राजा को तात्कालिक और दूरगामी परिणामों पर विचार करना चाहिए । इसलिए कभी ऐसी नीति भी अपनानी पड़ सकती है जिससे अपनी तत्काल तो हानि हो किंतु दूरगामी दृष्टि से लाभ हो। उसे यह सावधानी बरती चाहिए कि वह अपना लाभ करने वाली किसी नीति से शत्रु का लाभ न कर दे और शत्रु का क्षय करने के लिए की जाने वाली नीति से अपनी हानि न कर ले। इसलिए कई बार ऐसी नीति को भी छोड़ना पड़ सकता है जिससे अपना लाभ हो क्योंकि वह नीति शत्रु के लिए भी लाभकर हो सकती है और कई बार ऐसी नीति को भी अपनाना पड़ सकता है जो अपना कुछ नुकसान करे लेकिन शत्रु का अधिक नुकसान कर सके। अतः संधि विग्रह आदि इन छः गुणों के प्रयोग में लगातार अपनी और शत्रु की वृद्धि, क्षय और स्थान का तुलनात्मक आकलन करना आवश्यक है।

कौटिल्य ने पूरी तरह राजनीतिक कारणों से इन गुणों का प्रयोग करने की बात कही है। युद्ध न करने के पीछे भी केवल व्यावहारिक तर्क दिये गये हैं। इसमें नैतिकता का कोई तत्त्व नहीं है क्योंकि वे अच्छी तरह समझते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति केवल अपने हित को सामने रखकर की जाती है। विषम स्थितियों में तरह तरह की छलपूर्ण योजनायें बना कर अपनी वृद्धि करनी चाहिये। वे यहाँ तक कहते हैं कि यदि किसी बलवान शत्रु के आगे समर्पण करना पड़े तो कर देना चाहिये। ऐसे में शत्रु राज्य का कोई हिस्सा माँगे तो देना चाहिये । किन्तु फिर वहाँ उपद्रव करवा देना चाहिये। शत्रु हाथी घोड़े माँगे तो बूढ़े व बीमार पशु दे दे। समर्पण की कई शर्तें बहुत शर्मनाक भी हो सकती हैं जैसे राजा को किसी उच्च अधिकारी को या राजकुमार को या महारानी को या स्वयं को भी शत्रु के हवाले करना पड़ सकता है। ऐसे में आत्मसमर्पण करके शत्रु देश में भीतरघात की कोशिश करता रहे। मुख्य तत्त्व यह है कि कभी हार नहीं माननी चाहिये। इस प्रकार षड्गुण के समुचित प्रयोग से कोई राजा स्वयं को समृद्ध व शक्तिशाली बना सकता है।

कौटिल्य की राय को स्वीकार करते हुए कामन्दक ने कहा कि विग्रह (युद्ध) ही एकमात्र मूल गुण है। भिन्न-भिन्न स्थितियों के अनुसार संधि आदि गुण उस विग्रह से उत्पन्न होते हैं । फिर भी सभी छह गुणों को स्वीकार करना बेहतर है।

विग्रह एकेव संध्यादायोऽन्ये तु गुणस्तदत्तः।
अवस्थया भेदमुपगतं सन्दभा षड्गुण्यमित्येव गुरोरमतं नः॥ (11.42)

पंचतंत्र के 'काकोलूकीयम्" नामक तृतीय तन्त्र में राजा के मन्त्रियों ने षाड्गुण्य के सभी अंगों का व्यावहारिक परिचय दिया है।

दक्षिण देश में महिलारोप्य नाम का एक नगर था। नगर के पास एक बड़ा पीपल का वृक्ष था । उसकी घने पत्तों से ढकी शाखाओं पर पक्षियों के घोंसले ब थे। उन्हीं में से कुछ घोंसलों में कौवों के बहुत से परिवार रहते थे । कौवों का राजा वायसराज मेघवर्ण भी वहीं रहता था । वहाँ उसने अपने दल के लिए एक व्यूह सा बना लिया था। उससे कुछ दूर पर्वत की गुफा में उल्लुओं का दल रहता था। इनका राजा अरिमर्दन था । दोनों में स्वाभाविक वैर था । अरिमर्दन हर रात पीपल के वृक्ष के चारों ओर चक्कर लगाता था। वहाँ कोई इकला-दुकला कौवा मिल जाता तो उसे मार देता था। इसी तरह एक-एक करके उसने सेकड़ो कौवे मार दिए।
तब मेघवर्ण ने अपने मन्त्रियों को बुलाकर उसने उलूकराज के प्रहारों से बचने का उपाय पूछा। उसने कहा- कठिनाई यह है कि हम रात को देख नहीं सकते और दिन को उल्लू न जाने कहाँ जा छिपते हैं । हमें उनके स्थान के सम्बन्ध में कुछ भी पता नहीं । समझ में नहीं आता कि इस समय सन्धि, युद्ध, यान, आसन, संश्रय, द्वैधीभाव आदि उपायों में किसका प्रयोग किया जाए ?
पहले मेघवर्ण ने उज्जीवी नाम के प्रथम सचिव से प्रश्न किया । उसने उत्तर दिया-महाराज! बलवान् शत्रु से युद्ध नहीं करना चाहिए । उससे तो सन्धि करना ठीक है। युद्ध से हानि ही हानि है । समान बल वाले शत्रु से भी पहले सन्धि करके, कछुए की तरह सिमटकर, शक्ति संग्रह करने के बाद ही युद्ध करना उचित है।
उसके बाद संजीवी नाम के द्वितीय सचिव से प्रश्न किया गया। उसने कहा—महाराज शत्रु के साथ सन्धि नहीं करनी चाहिए। शत्रु सन्धि के बाद भी नाश ही करता है । पानी अग्नि द्वारा गर्म होने के बाद भी अग्नि को बुझा ही देता है । विशेषतः क्रूर, अत्यन्त लोभी और धर्मरहित शत्रु से कभी भी सन्धि न करे । शत्रु के प्रति शान्ति-भाव दिखलाने से उसकी शत्रुता आग और भी भड़क जाती है । वह और भी क्रूर हो जाता है । जिस शत्रु से हम आमने-सामने की लड़ाई न लड़ सकें उसे छल-बल द्वारा हराना चाहिए, किन्तु सन्धि नहीं करनी चाहिए । सच तो यह है कि जिस राजा की भूमि शत्रु के खून और उनकी विधवा स्त्रियों के आँसुओं से नहीं सींची गई, वह राजा होने के योग्य ही नहीं ।
तब मेघवर्ण ने तृतीय सचिव अनुजीवी से प्रश्न किया। उसने कहा- महाराज हमारा शत्रु दुष्ट है, बल में भी अधिक है। इसलिए उसके साथ सन्धि और युद्ध दोनों के करने में हानि है । उसके लिए तो शास्त्रों में यान-नीति का ही विधान है। हमें यहाँ से किसी दूसरे देश में चला जाना चाहिए। इस तरह पीछे हटने में कायरता दोष नहीं होता । शेर भी तो हमला करने से पहले पीछे हटता है । वीरता का अभियान करके जो हठपूर्वक युद्ध करता है वह शत्रु की इच्छा पूरी करता है और अपने व अपने वंश का नाश कर लेता है।
इसके बाद मेघवर्ण ने चतुर्थ सचिव प्रजीवी से प्रश्न किया। उसने कहा - महाराज ! मेरी सम्मति में तो सन्धि, विग्रह और यान तीनों में दोष है। हमारे लिए आसन नीति का आश्रय लेना ही ठीक है । अपने स्थान पर दृढ़ता से बैठना सबसे अच्छा उपाय है । मगरमच्छ अपने स्थान पर बैठकर शेर को भी हरा देता है, हाथी को भी पानी में खींच लेता है । वही यदि अपना स्थान छोड़ दे तो चूहे से भी हार जाए। अपने दुर्ग में बैठकर हमारा एक सिपाही शत-शत शत्रुओं का नाश कर सकता है । हमें अपने दुर्ग को दृढ़ बनाना चाहिए। अपने स्थान पर दृढ़ता से खड़े छोटे-छोटे वृक्षों को आँधी-तूफान के प्रबल झोंके भी उखाड़ नहीं सकते।
तब मेघवर्ण ने चिरंजीवी नाम के पंचम सचिव से प्रश्न किया। उसने कहा - महाराज ! मुझे तो इस समय संश्रय नीति ही उचित प्रतीत होती है। किसी बलशाली सहायक मित्र को अपने पक्ष में करके ही हम शत्रु को हरा सकते हैं । अतः हमें यहीं ठहरकर किसी समर्थ मित्र की सहायता ढूँढ़नी चाहिए। यदि एक समर्थ मित्र न मिले तो अनेक छोटे-छोटे मित्रों की सहायता भी हमारे पक्ष को सबल बना सकती है। छोटे-छोटे तिनकों से गुंथी हुई रस्सी भी इतनी मज़बूत बन जाती है कि हाथी को जकड़कर बाँध लेती है।
पाँचों मन्त्रियों से सलाह लेने के बाद वायसराज मेघवर्ण अपने वंशागत सचिव स्थिरजीवी के पास गया। उसे प्रणाम करके वह बोला - श्रीमान ! मेरे सभी मन्त्री मुझे जुदा-जुदा राय दे रहे हैं। आप उनकी सलाहें सुनकर अपना निश्चय दीजिए । स्थिरजीवी ने उत्तर दिया - वत्स ! सभी मन्त्रियों ने अपनी बुद्धि के अनुसार ठीक ही मन्त्रणा दी है; अपने-अपने समय सभी नीतियाँ अच्छी होती है । किन्तु मेरी सम्मति में तो तुम्हें द्वैधीभाव या भेद-नीति का ही आश्रय लेना चाहिए। उचित यह है कि पहले हम सन्धि द्वारा शत्रु में अपने लिए विश्वास पैदा कर लें, किन्तु शत्रु पर विश्वास न करें । सन्धि करके युद्ध की तैयारी करते रहे; तैयारी पूरी होने पर युद्ध कर दें। सन्धिकाल में हमें शत्रु के निर्बल स्थलों का पता लगाते रहना चाहिए। उनसे परिचित होने के बाद वहीं आक्रमण कर देना उचित है। मेघवर्ण ने कहा- आपका कहना निःसन्देह सत्य है, किन्तु शत्रु का निर्बल स्थल किस तरह देखा जाए?स्थिरजीवी ने कहा कि गुप्तचरों द्वारा ही हम शत्रु के निर्बल स्थल की खोज कर सकते हैं। गुप्तचर ही राजा की आँख का काम देता है ।

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बाहरी कड़ियाँ

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