हिन्दू वर्ण व्यवस्था

व्यक्ति का एक गुण

वर्ण (संस्कृत: वर्ण), के कई अर्थ होते हैं, जैसे प्रकार, क्रम, रंग या वर्ग। निरुक्त के'वर्णो वृणोते:' सूत्र के अनुसार 'वर्ण' वह है, जिसका गुणानुसार परखकर वरण किया जाए। [1][2] इसका उपयोग व्यक्तियों को संदर्भित करने के लिए किया जाता है। सनातन ग्रंथों में जैसे मनुस्मृति[1] में मनुष्यों के इन चार वर्णों के लिए निम्नलिखित व्यवसाय सुझाए गए हैं:[1][3]

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समुदाय जो चार वर्णों या वर्गों में से एक से संबंधित थे, उन्हें सवर्ण कहा जाता था, जो लोग किसी वर्ण से संबंध नहीं रखते थे, उन्हें अवर्ण कहा जाता था।[5][6] ऋग्वेद के पुरुष सूक्त पद्य में भी इन वर्णों का जिक्र है। ऋग्वेद मंडल 10 सूक्त 90 ऋचा 13-

ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्बाहू राजन्य: कृत:

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायत

वर्ण व्यवस्था: इतिहास और उसके उत्पत्ति संबन्धी सिद्धांत  ?

प्राचीन भारतीय सामाजिक ढांचे को समझने के लिए आवश्यक है कि पहले वर्ण और जाति के स्वरुप को समझ लिया जाए। ऋग्वैदिक वर्ण वयवस्था के अनुसार वर्ण का निर्धारण जन्म अथवा कर्म पर होता था यह विवादास्पद है किन्तु तब चार वर्ण– ब्राह्मण , क्षत्रिय, वैश्य,  शूद्र के अलग-अलग वर्ण निर्धारित किये गए थे यह सर्वमान्य है। सामजिक स्थिति और शुद्धता की दृष्टि से ब्रह्मण प्रथम पायदान पर, क्षत्रिय द्वितीय, वैश्य तृतीय और शूद्र चतुर्थ स्थान पर रखा गया। ‘वर्ण व्यवस्था का इतिहास और उसके उत्पत्ति संबन्धी सिद्धांत’ को समझने  के लिए हमें इस व्यवस्था के धार्मिक, सामजिक, और आर्थिक महत्व को समझाना होगा साथ ही ही इसके ऐतिहासिक पहलू को भी ध्यानपूर्वक समझने का प्रयास करना होगा। 

वर्ण व्यवस्था

ऋग्वेद के एक मंत्र में शूद्रों को ‌द्विज बनाना तथा शत्रु का नाश करने का आदेश राजा को दिया गया है-

आ संयत॑मिन्द्र णः स्व॒स्तिं शत्रुतूर्याय बृहतीममृधाम्। या दामा॒न्यार्याणि वृत्रा करों वज्रिन्त्सुतुका नाहुंषाणि ॥१०॥

(ऋग्वेद,मंडल:6 सूक्त:22 मंत्र:10)[7]

पदार्थान्वयभाषा हे (वज्रिन) शस्त्र और अस्त्र के धारण करनेवाले (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य के करनेवाले ! आप (यया) जिससे (दासानि) शूद्र के कुलों को (आर्याणि) ‌द्विजकुल और (सुतुका) उत्तम प्रकार बढ़नेवाले (नाहुषाणि) मनुष्यसम्बन्धी (वृत्रा) धनों को (आ) सब प्रकार (करः) करती हैं उस (अमृध्राम) नहीं हिंसा करनेवाली (बृहतीम्) बड़ी सेना को (शत्रुतूर्याय) शत्रुओं के नाश के लिये करिये और उससे (नः) हम लोगों के लिये (संयतम्) किया है संयम जिसके निमित्त उस (स्वस्तिम्) सुख को करिये ॥१०॥

भावार्थभाषा -हे राजन् ! आप सत्यविद्या के दान और उपदेश से शूद्र के कुल में उत्पन्न हुओं को भी द्विज करिये और सब प्रकार से ऐश्वर्य को प्राप्त कराय तथा शत्रुओं का निवारण करके सुख की वृद्धि कीजिये ॥१०॥


प्रारम्भ में वर्ण को बड़ी इकाई माना जाता था और एक वर्ण में अनेक जातियां हो सकती थीं। वर्ण विभाजित समाज में विदेशियों और जनजातियों के समावेश के कारण जातियों की संख्या जैसे-जैसे बढ़ती गई वैसे-वैसे उनके अस्तित्व के औचित्य को सिद्ध करने के लिए धर्मशास्त्रों में वर्णसंकर अथवा वर्णसकीर्ण के सिद्धांत का प्रतिपादन होता रहा। अधिकांश जातियों को वर्णसंकर या वर्णसंकीर्ण बतलाया गया और कहा गया कि ये जातियाँ अधिकतर प्रतिलोम विवाह के कारण पैदा हुई हैं। [1] 

अनुलोम और प्रतिलोम विवाह क्या था ?

आपमें से बहुत से अब इस बात को जानने के लिए उत्सुक होंगे कि यह अनुलोम और प्रतिलोम विवाह क्या है? सीधे शब्दों में इसे आप इस प्रकार समझिये —

प्रतिलोम विवाह– इस प्रकार की व्यवस्था प्राचीन काल में ब्राह्मण ग्रंथों में निर्धारित की गयी और ये भी सत्य है कि यह स्वयं ब्राह्मण जनित थी।  इस व्यवस्था के अनुसार जब उच्च वर्ण की स्त्री का संबंध निम्न वर्ण के पुरुष से होता है तो ऐसे संबंध को प्रतिलोम विवाह कहते हैं। उदाहरण के तौर पर इसे ऐसे समझिये ब्राह्मण पुत्री के साथ शूद्र पुरुष के विवाह को प्रतिलोम कहा गया है। और इस प्रकार के विवाह से उत्पन्न संतान को चंडाल कहा गया है।

अनुलोम विवाह–  अनुलोम विवाह संबंध प्रतिलोम का एकदम उल्टा होता है यानि उच्च वर्ण का पुरुष शूद्र वर्ण की स्त्री के साथ विवाह करता है उसे अनुलोम ( शास्त्रसम्मत )  कहा गया है और इस विवाह से उत्पन्न संतान को निषाद कहा जायेगा।

बहुत लोग यह कहते भी दिख जायेंगे कि भारत प्राचीन काल से ही जाति वयवस्था पर आधारित रहा है और हाल में हुए औद्योगिकीकरण के कारण इसमें परिवर्तन प्रारम्भ हुआ है सामाजिक संरचना में होने वाले परिवर्तनों की गति धीमी रही है। वे अचानक उभर कर नहीं आते लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि इसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।

वर्ण व्यवस्था और जाति की उत्पत्ति के सिद्धांत

विवाह और सामाजिक सम्पर्क की पाबंदियां, आनुवंशिकता और श्रेणीबद्धता ही अपरिवर्तनशील मानी जान वाली जातिप्रथा की प्रमुख विशिष्टताएं हैं। ऊंच-नीच का भाव जन्मजात कर दिया गया।

सिद्धांततः कोई अपने जीवनकाल में अपना वर्ण नहीं बदल सकता। चारों प्रमुख वर्ण और बहुसंख्यक जातियाँ किसी-न-किसी वर्ण के अंतर्गत आती हैं। कुल मिलकर संवैधानिक व्यवस्था से पूर्व तक ऊपर के दोनों वर्गों के पास अधिकांशतः जमीन और थी और वैश्य व्यापर तथा शूद्र कृषि, पशुपालन (गाय, भैंस, भेड़, आदि ), सेवा करते थे।

जातिप्रथा की उत्पत्ति संबंधी प्रथम सिद्धांत ––जातिप्रथा की उत्पत्ति अथवा शुरुआत के लिए बहुत  सफाइयां दी जाती हैं। कहा जाता है कि अपनी प्राकृतिक प्रवृत्ति और प्रतिभा के अनुरूप सम्पूर्ण मानव समाज चार वर्गों में बंटा है। कुछ लोगों में उच्च आध्यात्मिक तथा बौद्धिक प्रतिभाएं हैं, कुछ लोग बहादुर ( युद्ध की क्षमता ) हैं, कुछ  उत्पादन के योग्य हैं और इसी तरह श्रेणियां बना दी गयीं।

लेकिन वास्तविकता  ये है कि वर्ण व्यवस्था के प्राकृतिक होने का सिद्धांत उन लोगों के कुटिल दिमाग की उपज है जो सत्ता और आर्थिक संसाधनों पर शाश्वत अधिकार रखना चाहते हैं। जैसा कि अरस्तु कहता है कुछ लोग आदेश करने के लिए जन्म लेते हैं और कुछ पालन करने के लिए। पहले प्रकार के शासक बन गए और दूसरे गुलाम।

द्वितीय सिद्धांत- दूसरे सिद्धांत के अनुसार जातिप्रथा पवित्रता और अपवित्रता के भाव पर आधारित है। इस पवित्रता क्रमश: ब्राह्मण प्रथम, क्षत्रिय द्वितीय, वैश्य तृतीय और शूद्र में चतुर्थ प्रकार की पवित्रता पाई जाती है। वर्णों और जातियों की सापेक्षिक पवित्रता की कल्पना के आधार पर उन्हें विधि-अनुष्ठान की दृष्टि से कोटिक्रम में रखा गया है। लेकिन इस सिद्धांत के प्रतिपादक यह भूल जाते हैं कि भारत के बाहर आदिम और प्राचीन समाजों में पाए गए पवित्रता और अपवित्रता के भावों से वर्ण व्यवस्था का उदय या विकास नहीं हुआ है।

वैदिक काल में भी किसी भी प्रकार के काम को अपवित्र नहीं माना जाता था। वैदिक काल में चर्मकार भी कारीगरों में शामिल थे लेकिन उत्तर वैदिक काल में पुरोहितों और योद्धाओं ने अपना प्रभाव ज़माने के लिए इन्हें घृणा का पात्र बना दिया।

तृतीय सिद्धांत — इस सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक जनजाति बहुसंख्यक कुलों में विभक्त है और किसी कुल के सदस्य अपनी जनजाति के अंदर, लेकिन कुल के बाहर, वैवाहिक संबंध कर सकते थे। जब ऐसी जनजाति ब्राह्मणपरक सामाजिक व्यवस्था में जाति के रूप में मिला ली जाती है तब यह अपनी जाति के अंदर ही वैवाहिक संबंध जारी रखती है और अन्य जातियों के साथ सामाजिक संपर्क नहीं रखती है।

विवाह का आरम्भ समुदायों के बीच स्त्रियों के अदला-बदली के रूप में हुआ; मानव समाज को कायम रखने के लिए अदला-बदली आवश्यक समझी जाती थी। ऊँचें वर्णों के विशेषाधिकारों को कायम रखने की आवश्यकता के कारण सवर्ण विवाह पर बल दिया जाने लगा।

सुविधाभोगियों की संख्या समाज में कम होती है। यदि वे सभी वर्णों के साथ अपना वैवाहिक संबंध स्थापित करते है तो उनका दायरा बहुत बढ़ जाता है। इसलिए निचले वर्णों का उच्च वर्णों के साथ सामाजिक संपर्क अपने आप रुक जाता है और निचले वर्णों के लोगों पर अपने ही वर्ण में विवाह करने की बाध्यता हो जाती है।

चौथा सिद्धांत – चौथे सिद्धांत के अनुसार जाति-प्रथा की शुरुआत श्रमविभाजन के आधार पर हुई। कहा जाता है कि उत्पादन बढ़ाने और आर्थिक प्रगति के लिए पेशे के अनुसार श्रम विभाजन की आवश्यकता हुई जिससे जातियों का जन्म हुआ। यह तर्क कुछ तर्कसंगत लगता है।

वैदिक युग में जातियां स्वभाविक रूप से पेशे पर आधारित थीं और और व्यवसाय परिवर्तन सम्भव था। लेकिन आगे जाकर यह असंभव हो गया। इसके अतिरिक्त महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि श्रम-विभाजन को इस तरह लागू किया गया कि ब्राह्मण अथवा पुरोहितों और क्षत्रियों को उत्पादन के कार्य से हटा लिया गया और यह केवल वैश्यों और शूद्रों के मत्थे मढ़ दिया गया।

यदि वर्ण या जाति को हम सामाजिक विभेदीकरण का रूप मानकर चलें तो जातिप्रथा के उद्भव और विकास को अपेक्षाकृत अच्छी तरह समझा जा सकता है।  यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि सामाजिक संघर्षो के कारण और साधन एवं उत्पादन के असमान वितरण से समाज में वर्गभेद उतपन्न होता है। इसलिए जब तक भौतिक जीवन में हुए परिवर्तनों से सामाजिक प्रक्रिया के घने संबंध का अध्ययन नहीं किया जाए तब तक जाति के उद्भव और विकास को नहीं समझा जा सकता है।

वैदिक समाज

गायें ( गो ) संपत्ति ( रयि ) की पर्यावाची मानी जाती थी और धनी व्यक्ति गोमत कहलाता था।  युद्ध के लिए गविष्टि, गोषु, गव्यत, गव्य और गवेषण जैसे शब्दों की व्युत्पत्ति गो से हुई; गो से गव्यूति शब्द निकला जिससे दुरी का बोध होता है। गोप अथवा गोपति राजा को दिया गया उपनाम ( उपाधि ) था। पारिवारिक जीवन में पुत्री के लिए दुहितृ ( जो दुहति हो ) शब्द के प्रयोग से गाय के गुरुत्व का संकेत मिलता है।

देवतागण चार वर्गों में विभक्त थे : स्वर्गीय ( दिव्य ), सांसारिक ( पार्थिव ), गायोत्पन्न ( गोजात ) और जलीय ( आप्य ) । इन वर्गों से पुनः गायों के महत्व का संकेत मिलता है। वैदिककालीन लोगों का गायों से इतना घनिष्ठ संबंध था कि जब उन लोगों ने भैंस को देखा तब उसे गोवाल की संज्ञा उसी प्रकार दी जिस प्रकार बेबीलोन निवासियों ने घोड़े को पहली बार देखकर पहाड़ी गधा कहा।

यद्यपि ऋग्वैदिक समाज में कृषकों, कारीगरों, पुरोहितों और योद्धाओं का उल्लेख मिलता है फिर भी इस युग में आर्यों का समाज मूलतः कबीलाई, पशुचारी और करीब-करीब समानतावादी था। युद्ध में लूटी हुई वस्तुओं और गायों से संपत्ति के मुख्य ढांचे बनते थे। ऋग्वेद में वर्ण अथवा वर्ग के नाम पर नहीं  बल्कि कबीलाई जाति के नाम पर लोग संगठित होते थे।

कबीलाई जाति के लिए जन/ विश् शब्द का बारंबार उल्लेख है और पंचजनाः शब्द अथवा पाँच ( अनेक आर्य या काबिलाई) जातियों के अतिरिक्त ऋग्वेद में अनार्य जनजातियों के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है इस  चरण में दास और दस्यु लोगों की चर्चा मिलती है, लेकिन शूद्रों के रूप में सेवा करने वाले वर्ग के गठन का संकेत नहीं मिलता।

सरदारों और पुरोहितों के घरेलू कार्यों के लिए दासियाँ होती थी। यद्यपि उनकी संख्या अधिक नहीं रही होगी। स्त्रियों, की जो योद्धाओं और पशुपालकों को पैदा करती थीं, बड़ी मांग थी, क्योंकि परुष बराबर कबीलाई युद्धों में मारे जाते थे।

परवर्ती वैदिक काल में भी कृषि का विकास उतना नहीं हुआ था कि जिससे किसान अपने दैनिक भरण-पोषण के अतिरिक्त अन्न उपजा सकते थे। फलस्वरूप करों की वसूली नियमित रूप से नहीं हो सकती थी और उत्पादन के प्रबंधकों के बीच विभेदीकरण स्पष्टतया नहीं उभर सका था।

वैदिक युग के अंत में कृषि में बृद्धि तथा आर्य और अनार्य लोगों के मिश्रण के फलस्वरूप सार्वजानिक यज्ञों में विभिन्न अनुष्ठानों की देख-रेख के लिए सत्रह प्रकार के पुरोहित होते थे जिनमें ब्राह्मण भी एक होता था। धीरे-धीरे ब्राह्मण सभी प्रकार के पुरोहितों को हटाकर पुरोहित वर्ग के एकमात्र प्रितिनिधि बन गया और सारी दक्षिणा के आधे का हकदार बन गया।

इस युग में शूद्र छोटे सेवक वर्ग के रूप में उभरते हैं। इस वर्ग में ऐसे आर्य और अनार्य थे जो पराजित थे। उनमें से कुछ शूद्र वैदिक अनुष्ठानों में भाग ले सकते थे क्योंकि वे कबीलाई समाज के अंग थे जिसके अंतर्गत सभी तीनों उच्च वर्ग आ जाते थे।  कृषि के अविकसित होने के कारण इस युग में दास अथवा खेतिहर मजदूरों की आवश्यकता अधिक नहीं थी इसीलिए वैदिक साहित्य में मजदूरी करने वाले के लिए कोई शब्द नहीं पाया जाता।

खेती और दस्तकारी में लोहे के प्रयोग के व्यापक प्रयोग की शुरुआत के बाद छठी सदी ईसा पूर्व में ऐसी परिस्थिति पैदा हुई जिसमें अंततः कबीलाई, पशुचारी, और प्रायः समतावादी वैदिक समाज अब पूर्ण विकसित कृषि-आधारित और वर्ग-विकसित समाज बन गया। लोहे की फाल और अन्य औजारों की सहायता से किसानों ने अपने भरण-पोषण की आवश्यकता से कहीं अधिक अन्न उपजना शुरू कर दिया।  अतः बड़े-बड़े कृषक प्रधान और सरदार बन गए जिससे उन्हें कृषि मजदूरों और दासों की आवश्यकता हुयी।  

किसानों, कारीगरों, भाड़े के मजदूरों और खेतिहर गुलामों के द्वारा पैदा किये गए सामजिक अधिशेष के उपभोग के लिए वर्ण व्यवस्था का अविष्कार हुआ। इसके अनुसार तीनों उच्च वर्णों ( सामजिक वर्गों ) के सदस्यों और चौथे वर्ण के सदस्यों में विधि-अनुष्ठान के आधार पर प्रभेद कर दिया गया। शूद्रों, दासों और भाड़े के मजदूरों ( कर्मकारों ) की तरह उच्चतर वर्णों की सेवा के निमित्त थे।

इस प्रकार द्विजों को नागरिक और शूद्रों को  अनागरिक कहा गया। ब्राह्मणों और क्षत्रियों के लिए श्रम निषिद्ध कर दिया गया। इसलिए ब्राह्मण के लिए हल चलाना और हाथ से काम करना वर्जित था।  धीरे-धीरे शारीरिक श्रम के प्रति उच्चतर वर्णों की घृणा इतनी बढ़ गयी कि वे शारीरिक श्रम में लगे लगों को अछूत समझकर घृणा करने लगे।

वर्ण व्यवस्था के द्वारा क्षत्रियों को किसानों से लगान और व्यापारियों एवं कारीगरों से महसूल वसूलने का अधिकार मिला जिससे वे अपने पुरोहितों और कर्मचारियों को नगद भुगतान करने में समर्थ हुए। पाँचवी शताब्दी ईसा पूर्व से धातु के सिक्के प्रयोग में आ चुके थे और खासकर ईसा पूर्व 200 से ईसा पूर्व 300 की अवधि में इनका आम व्यवहार हो गया।

ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों किसानों और कारीगरों द्वारा दिए गए करों, उपहारों और श्रम पर जीवन-यापन करते थे, इसलिए कभी-कभी इन दोनों के बीच हिस्सा पाने के लिए झगड़े हो जाते थे, लेकिन ये झगड़े वैश्यों और शूद्रों के विरोध का सामना करने के लिए निबटा लिए जाते थे।

मनु के अनुसार वैश्य और शूद्र को अपने निर्धारित कर्तव्यों ( धर्म ) से अलग न हों, नहीं तो संसार में में दुर्व्यवस्था आ जाएगी। इसके फलस्वरूप धर्मशास्त्रों में बारम्बार बल देकर कहा गया है कि ब्राह्मणों के समर्थन के बिना उन्नति नहीं कर सकता। ये पारस्परिक सहयोग से ही फलफूल सकते हैं और संसार में शासन कर सकते हैं।

तीसरी सदी के लगभग वैश्य-शूद्र श्रम पर आधारित सामाजिक संरचना गहरे संकट में पड़ गई।  इस संकट का प्रतिबिम्ब तीसरी और चौथी शताब्दियों में पुराणों में दिए गए कलयुग के वर्णन से मिलता है। शांति पर्व में दण्ड के महत्व पर बल और रामायण में अव्यवस्था ( अराजकता  ) का वर्णन सम्भवतः इसी काल के हैं और इसी संकट को इंगित करते हैं। इस सकंट में वैश्य और शूद्रों द्वारा लगान के भुगतान से इनकार अथवा विरोध था।

इस स्थिति से निवटने के लिए राज्य के प्रति की गई सेवाओं के बदले राजस्व अथवा भूमि अनुदान के रिवाज को राजाओं ने बड़े पैमाने पर अपनाया।  इस प्रथा के कारण किसान भूमि का स्वामी न रहा अब उसे दूसरों के लिए ही अन्न उपजाना था। इस प्रथा का आरम्भ दक्कन और मध्य भारत में बड़े पैमाने पर हुआ।

वैश्य और किसान दोनों किसान कहलाते थे, इसलिए इनके बीच बहुत अंतर नहीं था। शूद्रों के लिए अनेक घरेलू अनुष्ठान अथवा संस्कार, धार्मिक व्रत और तीर्थाटन निर्धारित किये गए, जिससे साधारण ब्राह्मणों और निचली कोटि के पुरोहितों को दान-दक्षिणा का प्रबंध हुआ। शूद्र भी रामायण, महाभारत, और पुराण का पाठ सुन सकते थे। यानी इसके पीछे आर्थिक महत्व छुपा था।

गुप्त काल और गुप्तोत्तर काल में वर्ण एवं जाति व्यवस्था

गुप्त और गुप्तोत्तर कालों में बहुत तेजी से जातियों की संख्या बढ़ी। बहुत हद तक जनजातीय इलाकों में भू-अनुदानों के कारण ऐसा हुआ। अधिकांश जनजातियों को शूद्रों के रूप में हिन्दू प्रणाली में मिला लिया गया। मनु स्मृति का दसवां अध्याय पाँचवी ईस्वी सदी के आसपास का लगता है इसमें इकसठ जातियों का उल्लेख है और ब्रह्मवैवर्त पुराण में एक सौ से अधिक जातियों का उल्लेख है।

इनमें से अधिकांश जनजातीय लोग जातियों में परिवर्तित हो गए थे।  बहुतों के ऐसे नाम हैं जिनकी व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा  में नहीं मिलती। ब्राह्मण धर्मालम्बी स्मृतिकारों ने इन्हें वर्णसंकर कहा है।

इसी प्रकार जनजातीय सरदारों और कुछ विदेशी शासकों को ब्राह्मण-धर्मालम्बी समाज में दूसरे दर्जे के क्षत्रियों के रूप में शामिल किया गया; वे गुप्तोत्तर काल  में राजपूत कहलाये। विभिन्न भारतीय और बाहर से आई जनजातियों से विभिन्न प्रकार के राजपूत बने।

भूमि अनुदानों के फलस्वरूप किसानों की उपज पर जीवन-यापन करने वाले जमींदार वर्ग का आविर्भाव हुआ। लगभग चौथी-सातवीं शताब्दियों के बीच ऐसा सामजिक ढांचा उभरा जिसे सामंती संघटन कहना उपयुक्त होगा। लगभग तीन सदियों से अधिक समय तक व्यापार और प्राचीन शहरों की अवनति के कारण सामाजिक एवं स्थानिक गतिशीलता की कमी बनी रही।

परिणामस्वरूप जातिप्रथा के विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियां बन गई। आनुवंशिक व्यवसाय, सजातीय विवाह और अंतर्जातीय भोज तथा दूरस्थ यात्राओं से सम्बंधित पाबंदियों के कारण यह प्रथा मजबूत होती चली गई। [2]

निष्कर्ष

प्रारंभिक भारतीय समाज के क्रमिक विकास और वर्ग-विभेदीकरण  प्रमुख चरणों का उल्लेख किया जा सकता है।  ऋग्वेद के सार अंश में प्रतिबिंबित सामाजिक संघटन कबीलाई अर्द्धखानाबदोश और पशुचारी था जो मुश्किल से अधिशेष पैदा करता था।  कुछ कबीलाई सरदारों और उनके चारणों के पास  जनजातीय भाई-बंदों की अपेक्षा अधिक पशु रहते होंगे लेकिन उनके लिए किसी सामाजिक सुविधा का उपभोग सम्भव नहीं था। खेती के फैलाव के कारण परवर्ती वैदिक काल में वर्ग-परक समाज और राज्य-संरचना की ओर सामाजिक संक्रमण का प्रारम्भ हुआ।

ब्राह्मणों और राजन्यों ( सरदारों ) ने जनसाधारण अथवा जनजातीय लोगों को नियंत्रण में लाने के लिए प्रयास किया और कुछ विशेषाधिकार का दावा किया। कुल मिलकर कृषि के बढ़ते महत्व और आर्थिक संसाधनों पर एकाधिकार  के लिए वर्ण और जातियों का जाल वुना गया ताकि उसके विखराब का फायदा उठाया जा सके। ब्राह्मणों के निजी स्वार्थ और क्षत्रियों के सत्ता पर एकाधिकार को बनाये रखने के लिए वर्ण और जातियों का विचार उपजा। वर्तमान परिस्थियों में भी इसका तुलनात्मक रूप से अध्ययन कर सकते हैं स्थिति वही निकलकर आएगी

मनुस्मृति में वर्ण व्यवस्था पर टिप्पणी अक्सर उद्धृत की जाती है.[8] वर्ण-व्यवस्था की चर्चा धर्मशास्त्रों में व्यापक रूप से की जाती है।[9] धर्म-शास्त्रों में वर्ण व्यवस्था समाज को चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) में विभाजित करती है। सुसान बेइली के अनुसार जो लोग अपने पापों के कारण इस व्यवस्था से बाहर हो जाते हैं, उन्हें अवर्ण (अछूत) के रूप में निरूपित किया जाता है और वर्ण व्यवस्था के बाहर माना जाता है।[10][11]

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

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