काशी का विस्तार

वाराणसी क्षेत्र के विस्तार के अनेक पौराणिक उद्धरण उपलब्ध हैं।[1] कृत्यकल्पतरु में दिये तीर्थ-विवेचन व अन्य प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार[2]:

पुराणों में

  • ब्रह्म पुराण में भगवान शिव पार्वती से कहते हैं कि- हे सुरवल्लभे, वरणा और असि इन दोनों नदियों के बीच में ही वाराणसी क्षेत्र है, उसके बाहर किसी को नहीं बसना चाहिए।
  • मत्स्य पुराण के अनुसार यह क्षेत्र पश्चिम की ओर ढाई योजन तकथा।
  • लिंग पुराण में इस क्षेत्र का विस्तार कुछ और बढ़ाकर कहा गया है। इसके अनुसार कृतिवास से आरंभ होकर यह क्षेत्र एक-एक कोस चारों ओर फैला है।
  • मत्स्य पुराण[3] में इसकी लम्बाई-चौड़ाई अधिक स्पष्ट रूप से वर्णित है। पूर्व-पश्चिम ढ़ाई (२½) योजन भीष्मचंडी से पर्वतेश्वर तक, उत्तर-दक्षिण आधा (1/2) योजन, शेष हुआ है। उसके बीच में मध्यमेश्वर नामक स्वयंभू लिंग है। यहां से भी एक-एक कोस चारों ओर क्षेत्र का विस्तार है। यही वाराणसी की वास्तविक सीमा है। उसके बाहर विहार न करना चाहिए।[2]
  • अग्नि पुराण[4] के अनुसार वरणा और असी नदियों के बीच बसी हुई वाराणसी का विस्तार पूर्व में दो योजन और दूसरी जगह आधा योजन भा फैला था और दक्षिण में यह क्षेत्र वरणा से गंगा तक आधा योजन फैला हुआ था। मत्स्य पुराण में ही अन्यत्र नगर का विस्तार बतलाते हुए कहा गया है- पूर्व से पश्चिम तक इस क्षेत्र का विस्तार दो योजन है और दक्षिण में आधा योजन नगर भीष्मचंडी से लेकर पर्वतेश्वर तक फैला हुआ था।[2]
  • ब्रह्म पुराण के अनुसार इस क्षेत्र का प्रमाण पांच कोस का था उसमें उत्तरमुखी गंगा है[5] जिससे क्षेत्र का महात्म्य बढ़ गया। उत्तर की ओर गंगा दो योजन तक शहर के साथ-साथ बहती थी।
  • स्कंद पुराण के अनुसार उस क्षेत्र का विस्तार चारों ओर चार कोस था।
  • लिंग पुराण में इस क्षेत्र का विस्तार कृतिवास से आरंभ होकर यह क्षेत्र एक-एक कोस चारों ओर फैला हुआ है। उसके बीच में मध्यमेश्वर नामक स्वयंभू लिंग है। यहां से भी एक-एक कोस चारों ओर क्षेत्र का विस्तार है। यही वाराणसी की वास्तविक सीमा है। उसके बाहर विहार न करना चाहिए।[2]
  • अग्नि पुराण[6] के अनुसार वरणा और असी नदियों के बीच बसी हुई वाराणसी का विस्तार पूर्व में दो योजन और दूसरी जगह आधा योजन है।
  • मत्स्य पुराण[7] में इसकी लम्बाई-चौड़ाई अधिक स्पष्ट रूप से वर्णित है। पूर्व-पश्चिम ढ़ाई (२ १/२) योजन भीष्मचंडी से पर्वतेश्वर तक, उत्तर-दक्षिण आधा (१/२) योजन, शेष भाग वरुणा और अस्सी के बीच।[2]

उपरोक्त उद्धरणों से ज्ञात होता है कि प्राचीन वाराणसी का विस्तार काफी दूर तक था। वरुणा के पश्चिम में राजघाट का किला जहां प्राचीन वाराणसी के बसे होने में कोई संदेह नहीं है, एक मील लंबा और ४०० गज चौड़ा है। गंगा नदी उसके दक्षिण-पूर्व मुख की रक्षा करती है और वरुणा नदी उत्तर और उत्तर-पूर्व मुखों की रक्षा एक छिछली खाई के रूप में करती है, पश्चिम की ओर एक खाली नाला है जिसमें से होकर किसी समय वरुणा नदी बहती थी। रक्षा के इस प्राकृतिक साधनों को देखते हुए ही शायद प्राचीन काल में वाराणसी नगर के लिए यह स्थान चुना गया। सन् १८५७ ई. के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय अंग्रेजों ने भी नगर रक्षा के लिए वरुणा के पीछे ऊंची जमीन पर कच्ची मिट्टी की दीवारें उठाकर किलेबन्दी की थी। पुराणों में आयी वाराणसी की सीमा राजघाट की उक्त लम्बाई-चौड़ाई से कहीं अधिक है। उन वर्णनों से लगता है कि वहां केवल नगर की सीमा ही नहीं वर्णित है, बल्कि पूरे क्षेत्र को सम्मिलित कर लिया गया है।[2] वरुणा के उस पार तक प्राचीन बसावटों के अवशेष काफी दूर तक मिलते हैं। अतः संभव है कि पुराणों में मिले वर्णन वे सब भाग भी आ गये हों। इस क्षेत्र को यदि नगर में जुड़ा हुआ मानें, तो पुराणों में वर्णित नगर की लम्बाई-चौड़ाई लगभग सही ही बतायी गई है।

बुद्ध काल

गौतम बुद्ध के जन्म पूर्व महाजनपद युग में वाराणसी काशी जनपद की राजधानी थी।[2] किंतु प्राचीन काशी जनपद के विस्तार के बारे में यथार्थ आदि से अनुमान लगाना कठिन है। जातकों में[8] काशी का विस्तार ३०० योजन दिया गया है। काशी जनपद के उत्तर में कोसल जनपद, पूर्व में मगध जनपद और पश्चिम में वत्स था।[9] इतिहासवेत्ता डॉ॰ ऑल्टेकर के मतानुसार काशी जनपद का विस्तार उत्तर-पश्चिम की ओर २५० मील तक था, क्योंकि इसका पूर्व का पड़ोसी जनपद मगध और उत्तर-पश्चिम का पड़ोसी जनपद उत्तर पांचाल था। जातक (१५१) के अनुसार काशी और कोसल की सीमाएं मिली हुई थी। काशी की दक्षिण सीमा का सही वर्णन उपलब्ध नहीं है, शायद इसलिये कि वह विंध्य श्रृंखला तक गई हुई थी व आगे कोई आबादी नहीं थी। जातकों के आधार पर काशी का विस्तार वर्तमान बलिया से कानपुर तक फैला रहा होगा।[10] यहां श्री राहुल सांकृत्यायन कहते हैं, कि आधुनिक बनारस कमिश्नरी ही प्राचीन काशी जनपद रहा था। संभव है कि आधुनिक गोरखपुर कमिश्नरी का भी कुछ भाग काशी जनपद में शामिल रहा हो।

भूगोल

वर्तमान वाराणसी से प्राचीन वाराणसी निश्चय ही बहुत भिन्न रहा होगा। आज के बनारस जिले के जिन भागों में घनी बस्ती बसीं हैं उन भागों में गहड़वाल युग तक वन फैले थे। प्राचीन शहर में असंख्य तालाबों और पुष्करिणियों का भी भी वर्णन आता है, जिनमें बहुत सी तो १९वीं शताब्दी तक बच गयी थीं, किन्तु अब लगभग सभी नष्ट प्राय: हो गयी है। एक समय वाराणसी की भूमि को काटते रहने वाले नाले भी अब पट चुके हैं। ब्रह्मनाल कभी चौक तक पहुंचती थी, वहां शहर की घनी आबादी है और नालों के तो अब केवल नाम ही बच गए हैं। जातकों से ज्ञात होता है कि बनारस के आसपास घने जंगल फैले थे। काशी जनपद के जिन ग्रामों इत्यादि का वर्णन आता है, उनमें अधिकतर आधुनिक बनारस तहसील के अथवा जौनपुर के थे जो प्राचीन काशी जनपद का अंग था। प्राचीन मृगदाव और इसिपत्तन जिसका वर्तमान नाम सारनाथ है, बनारस तहसील में है तथा मच्छिकाखण्ड (वर्तमान मछली शहर) और कीटगिरी (केराकत) जौनपुर में है।[11] संभवत: चंदौली तहसील मध्यकाल में बसी हो, किन्तु कम-से-कम इस तहसील में अभी तक गुप्तकाल या उसके पहले के भग्नावशेष नहीं मिले हैं पर गहड़वाल युग (११-१२वीं शताब्दी) में चन्दौली तहसील पूरी तरह से बस चुकी थी। बनारस जिले में रामनगर की भूतपूर्व देशी रियासत भी सम्मिलित है- गंगा के दोनों किनारों पर २५ ० ८०' और २५ ० ३५' उत्तरी अक्षांश तथा ७८ ० ५६' और ७९ ० ५२' पूर्वीदेशांतर तक फैला है। संपूर्ण बनारस जिला गंगा की घाटी में स्थित है और इसके भू-गर्भिक स्तरों से मिट्टी के सिवा और कुछ नहीं निकलता, क्योंकि विंध्याचल की पहाड़ियां मिर्जापुर जिले तक सीमित हैं। जिले में मिट्टी की गहराई ज्ञात नहीं, पर गहरे कुओं की खुदाई से ३५ फुट तक लोम, उसके बाद २७ फुट जमी मिट्टी और उसके नीचे पानी के सोतों वाली लाल बालू मिलती है।

प्राकृतिक बनावट के आधार पर बनारस को दो भागों में वगीकृत कर सकते हैं:

  • उपरवार
  • तरी

ये दोनों भाग गंगा के ऊंचे-नीचे करारों से विभाजित है। इन करारों की भिन्नता जमीन प्रकृति और नदी के बहाव पर भी अवलंबित हैं। बनारस के दोनों भाग मुख्यत: जमीन का तला और ढ़ाल में एक-दूसरे से भिन्न हैं।

जिले के पश्चिमी भाग में बनारस तहसील और गंगापुर तथा भदोही सम्मिलित हैं और ये पूर्व की चंदौली तहसील से उपेक्षाकृत ऊंचा हैं। बनारस तहसील में जमीन की सतह पूर्व और दक्षिण-पूर्व की तरफ ढ़लवाण है। जल स्रोतों का बहाव गंगा की ओर को है इसी लिए जिले का पश्चिमी भाग नीचा-ऊंचा पठार है। जौनपुर व आजमगढ़ की सड़कें जहां उत्तर से बनारस पार करती हैं वहां उनकी ऊंचाई क्रमश: २३८ और २५० फुट है। बनारस की ऊंचाई समुद्री सतह से २५२ फुट है और यह गंगा की सबसे कम ऊंचाई १९७ फुट है। उत्तर-पूर्व अर्थात् परगना जाल्हूपुर में यह सतह क्रमश: ढ़लती हुई नदी के उस पार बालुओं में आकर २३८ फुट रह जाता है। सतह की इस ऊंचाई-निचाई के कारण जिले के पश्चिमी भाग की समतल जमीन उत्कृष्ट है। जल विभाजकों के पास यह मूर सबई कहलाती है, बाद मंल यह मूर अर्थात् बलुई हो जाती है। जिले की निचली जमीन मटियार कहलाती है और उसमें झीलों और तालाबों की सिंचाई से धान की अच्छी पैदावार होती है।

बनारस तहसील की प्राकृतिक बनावट के उपर्युक्त विवरण द्वारा आर्यों के आने पर इस स्थान को अपना केन्द्र बनाने का कारण स्पष्ट हो जाता है। अच्छी जमीन, पानी की सुलभता तथा आयात-निर्यात के साधन इसके मुख्य कारण थे। प्राचीन युग का राजमार्ग भी वाराणसी से गाजीपुर होकर बिहार की ओर जाता था क्योंकि वर्तमान ग्रैंड ट्रंक मार्ग पर उस समय घनघोर वन थे। गंगा पार के क्षेत्रों में वर्तमान चंदौली तहसील में जमीन नीची होने से बरसाती पानी छोटी नदियों में बाढ़ लाकर काफी नुकसान पहुंचता है और पानी के बहाव का ठीक रास्ता न होने से सिंचाई में कठिनाई आती थी। यहां की जमीन नीची होने के कारण यहां मलेरिया का भी अधिक प्रकोप होता रहा है। अथर्व वेद की पैप्पलाद शाखा में वाराणसी में बसे अनार्यों से अप्रसन्न होकर सूक्तकाल काशी जनपद पर तक्मा का धावा करने को कहता है। संभवत: प्राचीन काल में तक्मा अर्थात् मलेरिया से लोग बहुत डरते थे और उनका डरना स्वाभाविक भी था क्योंकि कुनैन के अविष्कार के पहले मलेरिया भारी प्राण संहारक होता था।[12]

सन्दर्भ

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