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ख़ैबर दर्रा

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ख़ैबर दर्रा
ख़ैबर दर्रा

ख़ैबर दर्रा या दर्र-ए-ख़ैबर (درۂ خیبر‎, Khyber Pass) उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान की सीमा और अफगानिस्तान के काबुलिस्तान मैदान के बीच हिंदुकुश के सफेद कोह पर्वत शृंखला में स्थित एक प्रख्यात ऐतिहासिक दर्रा है। यह दर्रा 50 किमी लंबा है और इसका सबसे सँकरा भाग केवल 10 फुट चौड़ा है। यह सँकरा मार्ग 600 से 1,000 फुट की ऊँचाई पर बल खाता हुआ बृहदाकार पर्वतों के बीच खो सा जाता है। इस दर्रे के ज़रिये भारतीय उपमहाद्वीप और मध्य एशिया के बीच आया-जाया सकता है और इसने दोनों क्षेत्रों के इतिहास पर गहरी छाप छोड़ी है। ख़ैबर दर्रे का सबसे ऊँचा स्थान पाकिस्तान के संघीय प्रशासित कबायली क्षेत्र की लंडी कोतल (‎لنڈی کوتل, Landi Kotal) नामक बस्ती के पास पड़ता है। इस दर्रे के इर्द-गिर्द पश्तून लोग बसते हैं।

पेशावर से काबुल तक इस दर्रे से होकर अब एक सड़क बन गई है। यह सड़क चट्टानी ऊसर मैदान से होती हुई जमरूद से, जो अंग्रेजी सेना की छावनी थी और जहाँ अब पाकिस्तानी सेना रहती है, तीन मील आगे शादीबगियार के पास पहाड़ों में प्रवेश करती है और यहीं से खैबर दर्रा आरंभ होता है। कुछ दूर तक सड़क एक खड्ड में से होकर जाती है फिर बाई और शंगाई के पठार की ओर उठती है। इस स्थान से अली मसजिद दुर्ग दिखाई पड़ता है जो दर्रे के लगभग बीचोबीच ऊँचाई पर स्थित है। यह दुर्ग अनेक अभियानों का लक्ष्य रहा है। पश्चिम की ओर आगे बढ़ती हुई सड़क दाहिनी ओर घूमती है और टेढ़े-मेढ़े ढलान से होती हुई अली मसजिद की नदी में उतर कर उसके किनारे-किनारे चलती है। यहीं खैबर दर्रे का सँकरा भाग है जो केवल पंद्रह फुट चौड़ा है और ऊँचाई में 2,000 फुट है। 5 किमी आगे बढ़ने पर घाटी चौड़ी होने लगती है। इस घाटी के दोनों और छोटे-छोटे गाँव और जक्काखेल अफ्रीदियों की लगभग साठ मीनारें है। इसके आगे लोआर्गी का पठार आता है जो 10 किमी लंबा है और उसकी अधिकतम चौड़ाई तीन मील है। यह लंदी कोतल में जाकर समाप्त होता है। यहाँ अंग्रेजों के काल का एक दुर्ग है। यहाँ से अफगानिस्तान का मैदानी भाग दिखाई देता है। लंदी कोतल से आगे सड़क छोटी पहाड़ियों के बीच से होती हुई काबुल नदी को चूमती डक्का पहुँचती है। यह मार्ग अब इतना प्रशस्त हो गया है कि छोटी लारियाँ और मोटरगाड़ियाँ काबुल तक सरलता से जा सकती हैं। इसके अतिरिक्त लंदी खाना तक, जिसे खैबर का पश्चिम कहा जाता है, रेलमार्ग भी बन गया है। इस रेलमार्ग का बनना 1925 में आरंभ हुआ था।

सामरिक दृष्टि में संसार भर में यह दर्रा सबसे अधिक महत्व का समझा जाता रहा है। भारत के 'प्रवेश द्वार' के रूप में इसके साथ अनेक स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं। समझा जाता है कि सिकन्दर के समय से लेकर बहुत बाद तक जितने भी आक्रामक शक-पल्लव, बाख्त्री, यवन, महमूद गजनी, चंगेज खाँ, तैमूर, बाबर आदि भारत आए उन्होंने इसी दर्रे के मार्ग से प्रवेश किया। किन्तु यह बात पूर्णतः सत्य नहीं है। दर्रे की दुर्गमता और इस प्रदेश के उद्दंड निविसियों के कारण इस मार्ग से सबके लिए बहुत साल तक प्रवेश सहज न था। भारत आनेवाले अधिकांश आक्रमणकारी या तो बलूचिस्तान होकर आए या [[काबुल] से घूमकर जलालाबाद के रास्ते काबुल नदी के उत्तर होकर आए जहाँ से प्रवेश अधिक सुगम रहा है।

ऐतिहासिक रूप से इस दर्रे पर जिसका भी नियंत्रण होता है उसे भारतीय उपमहाद्वीप और मध्य एशिया दोनों में दख़ल देने की क्षमता होती है। इस कारण इसपर हमेशा खींचातानी रही है और समय-समय पर इसपर मौर्य साम्राज्य, पार्थिया, मुगल साम्राज्य, सिख साम्राज्य, ब्रिटिश राज, आदि का क़ब्ज़ा रहा है। इसके ज़रिये हख़ामनी साम्राज्य के कुरोश, यूनानी साम्राज्य के सिकंदर, स्किथी लोग, कुषाण, मुहम्मद ग़ोरी, मुगल साम्राज्य का संस्थापक बाबर और बहुत से अन्य आक्रामक भारत में दाख़िल हुए हैं। विपरीत दिशा में मौर्य, सिख और ब्रिटिश आक्रामकों ने इस से गुज़रकर भारत से अफ़्गानिस्तान पर धावा बोला है।[1] अति-प्राचीन काल में, मनुष्यों के अफ़्रीका में उत्पन्न होने के बाद, जब वे अफ़्रीका से एशिया में फैले तो भी उन्होंने ख़ैबर और बोलन दर्रों के प्रयोग से भारत में प्रवेश किया। बहुत से भारतीय और दक्षिण-पूर्वी एशिया के लोग इन दर्रों से गुज़रे हुए लोगों के वंशज हैं।[2]

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

पाकिस्तान के प्रमुख दर्रेपृथ्वी
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