चिंपैंजी

(चिम्पांज़ी से अनुप्रेषित)

चिंपैंजी जिसे आम बोलचाल की भाषा में कभी-कभी चिम्प भी कहा जाता है, पैन जीनस (वंश) के वनमानुष की दो वर्तमान प्रजातियों का सामान्य नाम है।[2] कांगो नदी दोनों प्रजातियों के मूल निवास स्थान के बीच सीमा का काम करती है:[3]

चिंपैंजी[1]
आम चिंपैंजी (पैन ट्रोग्लोडाइट्स)
वैज्ञानिक वर्गीकरण
जगत:Animalia
संघ:Chordata
वर्ग:Mammalia
गण:Primates
कुल:Hominidae
उपकुल:Homininae
वंश समूह:Hominini
उपगणजाति:Panina
वंश:पैन
Oken, 1816
प्रकार जाति
पैन ट्रोग्लोडाइट्स (आम चिंपैंजी)

पैन पैनिस्कस (बोनोबो)

Species

पैन ट्रोग्लोडाइट्स
पैन पैनिस्कस

पैन ट्रोग्लोडाइट्स (आम चिंपैंजी) और पैन पैनिस्कस (लाल बोनोबो) का वितरण

चिंपैंजी; बोनोबो, गोरिल्ला, मानव और ओरंगउटान के साथ होमिनिडे परिवार के सदस्य हैं। एप्स प्रजाती के जीवों को साधारण भाषा में चिम्पांज़ी कहते हैं।[4] सबसे जाना माना चिम्पांज़ी पैन ट्रोदलोडाइटस (Pan troglodytes) है, जो मुख्यतः पश्चिमी तथा मध्य अफ्रिका में पाया जाता है। चिम्पांज़ी होमीनीडा परिवार का सदस्य है। मनुष्य तथा गोरिल्ला भी इसी परिवार के हैं। चिम्पांजी लगभग साठ लाख वर्ष पहले मानव विकास की प्रक्रिया से अलग हो गए थे और चिम्पांजी की दो प्रजातियाँ मनुष्य की सबसे करीबी जीवित संबंधी हैं, ये सभी होमिनी जनजाति (होमिनिया उप-जनजाति की वर्तमान प्रजातियों के साथ) के सदस्य हैं। चिम्पांजी पैनिना उप-जनजाति के एकमात्र ज्ञात सदस्य भी हैं। इन दो पैन प्रजातियों का विभाजन केवल दस लाख (1 मिलियन) वर्ष पहले ही हुआ था।

विकासवादी इतिहास

विकासवादी संबंध

होमिनोइडे के टेक्सोनोमिक संबंध

पैन जीनस को होमिनिनी उप-परिवार का हिस्सा माना जाता है जिससे मनुष्यों का संबंध है। ये दो प्रजातियाँ मनुष्यों की सबसे करीबी जीवित विकासवादी संबंधी हैं तथा साठ लाख (छः मिलियन) वर्ष पहले मनुष्यों और इनके पूर्वज एक ही थे।[5] 1973 में मैरी-क्लेयर किंग की शोध में मनुष्यों और चिम्पान्जियों के बीच 99% एक सामान डीएनए पाए गए,[6] हालांकि गैर-कोडिंग डीएनए में कुछ भिन्नता के कारण उसके बाद की शोध में इस आंकड़े को बदलकर लगभग 94%[7] कर दिया गया। यह प्रस्ताव किया गया है ट्रोग्लोडाइट्स और पैनिस्कस का संबंध सेपियंस के साथ जीनस पैन की बजाय होमो से है। इसके लिए दिए गए तर्कों में से एक यह है कि अन्य प्रजातियों को मनुष्यों और चिम्पान्जियों के बीच की तुलना में कम आनुवंशिक समानता के आधार पर एक ही जीनस में रखने के लिए पुनः वर्गीकृत किया गया है।

जीवाश्म

मानव जीवाश्म काफी मात्रा में पाए गए हैं लेकिन चिम्पांजी के जीवाश्मों के बारे में 2005 तक कोई वर्णन मौजूद नहीं था। पश्चिम और मध्य अफ्रीका में चिम्पांजी की मौजूदा आबादी पूर्वी अफ्रीका में प्रमुख मानव जीवाश्म स्थलों से मेल नहीं खाती हैं। हालांकि अब चिम्पांजी के जीवाश्मों के बारे में केन्या से जानकारी प्राप्त हुई है। इससे यह संकेत मिलता है कि मनुष्य और पैन क्लेड के सदस्य, दोनों मध्य प्लेस्टोसीन काल के दौरान पूर्वी अफ्रीकी रिफ्ट वैली में मौजूद थे।[8]

शारीरिक रचना और शरीर विज्ञान

आम नर चिम्प की ऊँचाई खड़े होने पर 1.7 मीटर (5.6 फीट) तक होती है और इसका वजन अधिक से अधिक 70 किलोग्राम (150 पौंड) होता है; मादा चिम्पांजी कुछ छोटी होती है। आम चिम्प के लंबे हाथ फैलाए जाने पर शरीर की ऊँचाई से अधिक से अधिक डेढ़ गुना अधिक होते हैं और चिम्पांजी के हाथ इसके पैरों से लम्बे होते हैं।[9] बोनोबो आम चिम्पांजी की तुलना में थोड़ा छोटा और दुर्बल होता है लेकिन इसके हाथ-पैर लम्बे होते हैं। दोनों प्रजातियाँ अपने लंबे, शक्तिशाली हाथों का इस्तेमाल पेड़ों पर चढ़ने के लिए करती हैं। जमीन पर चिम्पांजी आम तौर पर अपने सभी चारों हाथ-पैरों पर अपनी उँगलियों की गांठों (नक्कल्स) का इस्तेमाल करते हुए चलते हैं और सहारे के लिए हाथों को भीच कर रखते हैं, चलने-फिरने का यह तरीका नक्कल-वाकिंग कहलाता है। चिम्पांजी के पैर ओरांगउटान की तुलना में चलने-फिरने के लिए कहीं अधिक अनुकूल होते हैं क्योंकि चिम्पांजी के तलवे अपेक्षाकृत चौड़े और अंगूठे छोटे होते हैं। आम चिंपांज़ी और बोनोबो दोनों अपने हाथों और बाजुओं से किसी चीज को उठाकर ले जाते समय दो पैरों पर सीधे खड़े होकर चल सकते हैं। बोनोबो के हाथ आनुपातिक रूप से अधिक लंबे होते हैं और ये आम चिम्पांजी की तुलना में अक्सर सीधे खड़े होकर चलना पसंद करते हैं। इसकी खाल काली होती है; चेहरे, उँगलियों, हाथ की हथेलियाँ और पैर के तलवे बालरहित होते हैं; और चिम्प के पास पूँछ नहीं होती है। दोनों प्रजातियों में चेहरे, हाथों और पैरों की बाहरी त्वचा गुलाबी से लेकर बहुत गहरे रंग की होती है लेकिन युवा चिम्पान्जियों में आम तौर पर यह रंग अपेक्षाकृत हल्का होता है, परिपक्व (वयस्क) होने पर इसका रंग गहरा होने लगता है। शिकागो मेडिकल सेंटर विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में चिम्पांजी की आबादियों के बीच काफी आनुवंशिक भिन्नताएं पायी गयी हैं।[10] आँखों के ऊपर एक हड्डी का शेल्फ माथे को एक ढलवां स्वरूप देता है और नाक चौड़ी होती है। हालांकि जबड़े बाहर निकले हुए होते हैं, होठ केवल तभी फैलाए जाते हैं जब कोई चिम्प मुँह फुलाने (खीझने) की मुद्रा में होता है। चिम्पांजी का मस्तिष्क मनुष्य के मस्तिष्क के आधे आकार का होता है।[11]

चिम्पांजी के अंडकोष उसके शरीर के आकार के हिसाब से असामान्य तौर पर बड़े होते हैं जिनका संयुक्त वजन एक गोरिल्ला के अंडकोष 1 औंस (28 ग्राम) या एक मानव अंडकोष 1.5 औंस (43 ग्राम) की तुलना में लगभग 4 औंस (110 ग्राम) होता है। इसके लिए आम तौर पर चिम्पांजी के संभोग संबंधी आचरण की बहुपतीत्व (पोलीएंड्रस) प्रकृति के कारण होने वाली शुक्राणु की प्रतिस्पर्धा जिम्मेदार है।[12] चिम्पांजी 8 से 10 वर्ष के बीच की आयु में यौवनावस्था तक पहुँच जाते हैं और जंगलों में शायद ही कभी 40 साल की उम्र से अधिक जीवित रहते हैं लेकिन कैद में इसके 60 वर्ष से अधिक की उम्र तक पहुँचने के बारे में ज्ञात है।

व्यवहार

बोनोबो

आम चिम्पांजी और बोनोबो के बीच शारीरिक रचना में मामूली अंतर होता है लेकिन इनके यौन संबंधी और सामाजिक व्यवहार में काफी भिन्नताएं होती हैं। आम चिम्पांजी का एक सर्वभक्षी आहार होता है, ये बीटा नरों पर एक अल्फा नर के नेतृत्व के आधार पर टुकड़ी बनाकर शिकार करने की संस्कृति का अनुसरण करते हैं और इनके सामाजिक संबंध अत्यंत जटिल होते हैं। दूसरी और बोनोबो का आहार ज्यादातर फलाहारी (फ्रूजीवोरस) होता है और इनका आचरण समतावादी, अहिंसक, मातृसत्तात्मक और यौन संबंधों के लिए ग्रहणशील होता है।[13] बोनोबो लगातार यौन संबंध बनाने के लिए प्रसिद्ध हैं जिसमें नरों और मादाओं दोनों के लिए तरीका उभयलिंगी होता है, इसके अलावा ये यौन संबंधों का इस्तेमाल विवादों को रोकने और सुलझाने में मदद के लिए भी करते हैं। उपकरणों के प्रकार की प्राथमिकता के अनुसार विभिन्न समूहों के चिम्पान्जियों के सांस्कृतिक आचरण भी अलग-अलग होते हैं।[14] आम चिम्पांजी बोनोबो की अपेक्षा अधिक आक्रामक होते हैं।[15]

सामाजिक संरचना

चिम्पांजी, अनेक नर और मादा वाले सामाजिक समूहों में रहते हैं जिन्हें समुदाय कहा जाता है। समुदाय के भीतर एक निश्चित सामाजिक पदानुक्रम होता है जो एक सदस्य की सामाजिक स्थिति और दूसरों पर उसके प्रभाव से निर्धारित होता है। चिम्पांजी एक निम्न (लीनर) पदानुक्रम में रहते हैं जिसमें एक से अधिक सदस्य इतने प्रभावी हो सकते हैं कि वे कम रैंक वाले अन्य सदस्यों पर अपना दबदबा कायम कर सकें. आम तौर पर इसमें एक प्रभावशाली नर सदस्य होता है जिसे अल्फा मेल के रूप में जाना जाता है। अल्फा मेल सर्वोच्च-रैंकिंग वाला नर सदस्य होता है जो समूह पर नियंत्रण रखता है और किसी भी विवाद के दौरान व्यवस्था को बनाए रखता है। चिम्पांजी समाज में 'प्रमुख नर' हमेशा सबसे बड़ा या सबसे ताकतवर नर नहीं होता है बल्कि यह सदस्य सबसे अधिक जोड़-तोड़ करने वाला और राजनीतिक नर होता है जो एक समूह के भीतर चल रही गतिविधियों को प्रभावित कर सके। नर चिम्पांजी आम तौर पर अपना वर्चस्व ऐसे मित्र बनाकर हासिल करता है जो शक्ति के लिए उस सदस्य की भविष्य की महत्वाकांक्षाओं के मामले में सहायता प्रदान करेगा। ताकत दिखाने और दूसरों से मान्यता प्राप्त करने की कोशिश का प्रदर्शन करना एक नर चिम्पांजी के चरित्र में होता है जो अपनी सामाजिक स्थिति को कायम रखने के लिए बुनियादी तौर पर जरूरी हो सकता है। अल्फा नर अपनी शक्ति पर पकड़ और अधिकार को बनाए रखने के प्रयास में अन्य सदस्यों को धमकाने के लिए अपने आकार को बड़ा और डरावना दिखाने और जितना अधिक संभव हो अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए अक्सर अपनी सामान्य रूप से पतली खालों को फुला कर मोटा कर लेते हैं। निचली-श्रेणी के चिम्पांजी शारीरिक भाषा में आज्ञाकारी हाव-भाव बनाकर या घुरघुराते हुए अपने हाथ को बाहर निकालकर सम्मान का प्रदर्शन करते हैं। मादा चिम्पांजी अपने पुट्ठों (हाइंड-क्वार्टर्स) को पेश कर अल्फा नर के प्रति अपनी अधीनता का प्रदर्शन करती हैं।

मादा चिम्पांजी भी एक पदानुक्रम रखती हैं जो किसी समूह के भीतर एक मादा की व्यक्तिगत स्थिति से प्रभावित होता है। कुछ चिम्पांजी समुदायों में युवा मादाएं एक उच्च-श्रेणी की माँ से विरासत के तौर पर अपनी उच्च सामाजिक स्थिति हासिल कर सकती है। मादाएं भी निचले-क्रम की मादाओं पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए नए मित्र बनाती हैं। नरों के विपरीत जिनका वर्चस्व का दर्जा हासिल करने का मुख्य प्रयोजन यौन संबंधों में विशेषाधिकार प्राप्त करना और कभी-कभी अपने अधीनस्थों पर हिंसक प्रभाव दिखाना होता है, मादाएं भोजन जैसे संसाधनों को प्राप्त करने के लिए वर्चस्व का दर्जा हासिल करती हैं। उच्च-श्रेणी की मादाओं को अक्सर संसाधनों तक पहली पहुँच हासिल होती है। आम तौर पर नर और मादाएं दोनों एक समूह के भीतर सामाजिक स्थिति में सुधार के लिए प्रभावशाली दर्जा हासिल करते हैं।

अक्सर मादाएं ही अल्फा नर का चयन करती हैं। एक नर चिम्पांजी को अल्फा का दर्जा हासिल करने के लिए समूह के भीतर मादाओं से स्वीकृति प्राप्त करना अनिवार्य होता है क्योंकि वास्तव में वे ही ये तय करती हैं कि किस तरह की जीवनशैली निर्धारित की जाए (मादाएं ही अगली पीढ़ी की आजीविका सुनिश्चित करती हैं; उन्हें यह सुनिश्चित करना होता है कि उनका समूह उन स्थानों में जा रहा है जहाँ उन्हें पर्याप्त मात्रा में भोजन की आपूर्ति होगी). कई ऐसे मामले हैं जहाँ प्रभावशाली मादाओं का एक समूह अपनी प्राथमिकता के अनुरूप न होने के कारण अल्फा नर को बेदखल कर देता है और इसके बजाय वे दूसरे नर का समर्थन करती हैं जिसके पास उन्हें एक सफल अल्फा नर के रूप में समूह का नेतृत्व करने की क्षमता दिखाई देती है।

बुद्धिमत्ता

मस्तिष्क का चित्र. चिम्पांजी के मोटर फिल्ड में फोसाई के मुख्य समूहों की टोपोग्राफी (स्थलाकृति)

चिम्पांजी अपने उपकरण बनाते हैं और उनका उपयोग भोजन-सामग्रियों को जुटाने और सामाजिक प्रदर्शन के लिए करते हैं; उनके पास शिकार करने की आधुनिक रणनीतियां होती हैं जिसके लिए समन्वय, प्रभाव और रैंक की जरूरत होती है; वे अपने स्टेटस के लिए संवेदनशील, जोड़-तोड़ करने वाले और छल-कपट के लिए योग्य होते हैं; वे संकेतों का इस्तेमाल करना सीख सकते हैं और इंसानी भाषा के पहलुओं को समझ सकते हैं जिनमें शामिल हैं कुछ संबंधपरक वाक्य विन्यास, संख्या और संख्यात्मक अनुक्रम की अवधारणाएं;[16] और वे भविष्य की स्थिति या घटना के लिए तत्काल योजना तैयार करने में सक्षम होते हैं।[17]

उपकरण का उपयोग

अक्टूबर 1960 में जेन गुडऑल द्वारा चिम्पान्जियों के बीच उपकरणों के इस्तेमाल की खोज को सबसे महत्वपूर्ण खोजों में से एक माना गया है। हाल के शोध से यह संकेत मिलता है कि चिम्पांजी द्वारा पत्थर के उपकरण का इस्तेमाल कम से कम 4,300 साल पहले शुरू किया गया था।[18] चिम्पांजी के उपकरण संबंधी उपयोग में एक बड़े छड़ीनुमा उपकरण से दीमक के ढेर की खुदाई और उसके बाद एक छोटी रूपांतरित छड़ी का उपयोग कर दीमकों को "बाहर" निकालना शामिल है।[19] हाल के एक अध्ययन से भाले जैसे उन्नत औजारों का पता चला है जिसे सेनेगल के आम चिम्पांजी अपनी दांतों से पैना करते थे और उसका इस्तेमाल सेनेगल की बुशबेबीज को पेड़ों के छोटे-छोटे छिद्रों से बाहर निकालने में करते थे।[20][21] चिम्पांजियों में औजारों के इस्तेमाल की खोज से पहले यह माना जाता था कि मनुष्य ही एकमात्र ऐसी प्रजाति थी जो औजार बनाना और उसका इस्तेमाल करना जानती थी, लेकिन औजार का इस्तेमाल करने वाली कई अन्य प्रजातियों के बारे में अब ज्ञात हो चुका है।[22][23]

समानुभूति

चिम्पांजी की माँ और बच्चे

हाल के अध्ययनों से पता चला है कि चिम्पांजी समूहों के भीतर जाहिर तौर पर परोपकारी व्यवहार में संलग्न होते हैं,[24][25] लेकिन ये असंबंधित समूह के सदस्यों की भलाई के प्रति उदासीन रहते हैं।[26]

"चिम्पांजी के अध्यात्म" के साक्ष्यों में शामिल हैं शोक का प्रदर्शन, "प्रारंभिक रोमांटिक प्यार", "वर्षा नृत्य", प्राकृतिक सौन्दर्य की सराहना जैसे कि किसी झील के ऊपर सूर्यास्त का दृश्य, वन्यजीव के प्रति जिज्ञासा और आदर भाव (जैसे कि अजगर, जो चिम्पान्जियों के लिए ना तो कोई खतरा है और ना ही भोजन का स्रोत), अन्य प्रजातियों के प्रति समानुभूति (जैसे कि कछुओं को खिलाना) और यहाँ तक कि बच्चों को खिलाते समय "एनिमिज्म (नाटक)" का प्रदर्शन.[27]

संवाद

चिम्पांजी मनुष्य के गैर-शाब्दिक संवाद की तरह स्वरों के उच्चारण, हाथ के इशारों और चेहरे के हाव-भाव के प्रयोग से आपस में संवाद करते हैं। चिम्पांजी के मस्तिष्क पर किये गए शोध में यह पता चला है कि चिम्प का संवाद उनके मस्तिष्क के एक क्षेत्र को सक्रिय करता है जो उसी स्थान पर मौजूद है जहां मानव मस्तिष्क में भाषा का केन्द्र, ब्रोका का क्षेत्र मौजूद होता है।[28]

भाषा के अध्ययन

चिम्पांजी का साइड प्रोफ़ाइल

वैज्ञानिक लंबे समय से भाषा के अध्ययन के प्रति इस विश्वास के साथ आकर्षित होते हैं कि यह एक अद्वितीय मानव संज्ञानात्मक क्षमता है। इस परिकल्पना का परीक्षण करने के लिए वैज्ञानिकों ने विशालकाय वानरों की कई प्रजातियों को मानवीय भाषा सिखाने का प्रयास किया है। 1960 के दशक में एलन और बीट्रिस गार्डनर द्वारा की गयी एक शुरुआती कोशिश में वाशू नामक एक चिम्पांजी को अमेरिकी सांकेतिक भाषा सिखाने के लिए 51 महीने का समय बिताना शामिल था। गार्डनर ने बताया कि वाशू ने 151 संकेतों को सीख लिया था और यह कि उसने तत्काल इन्हें अन्य चिम्पान्जियों को सिखा दिया था।[29] एक लंबी अवधि के बाद वाशू ने 800 से अधिक संकेतों को सीख लिया था।[30]

कुछ वैज्ञानिकों, विशेषकर नोम चोमस्की और डेविड प्रिमैक के बीच गैर-मानव विशालकाय वानरों की भाषा सीखने की क्षमता के बारे में लगातार बहस चल रही है। वाशू पर शुरुआती रिपोर्ट के बाद कई अन्य अध्ययनों को विभिन्न स्तरों की सफलता प्राप्त हुई है,[31] जिसमें कोलंबिया विश्वविद्यालय के हर्बर्ट टेरेस द्वारा प्रशिक्षित पैरोडी के रूप में रखे गए निम चिम्प्स्की नाम के एक चिम्पांजी पर किया गया अध्ययन शामिल है। हालांकि उनके प्रारंभिक रिपोर्ट काफी सकारात्मक थे, नवंबर 1979 में टेरेस और उनकी टीम ने निम के वीडियोटेपों का उसके प्रशिक्षकों के साथ पुनः मूल्यांकन किया जिसमें उन्होंने संकेतों और सही संदर्भ (निम के संकेतों के पहले और उसके बाद दोनों ही स्थितियों में क्या हो रहा था) मूल्यांकन दोनों से पहले और नीम के संकेत के बाद) के लिए फ्रेम दर फ्रेम इसका विश्लेषण किया। फिर से विश्लेषण में टेरेस ने यह निष्कर्ष निकाला कि निम के जवाबों की व्याख्या केवल प्रयोगकर्ताओं की ओर से प्रोत्साहन और आंकड़ों की जानकारी देने में त्रुटियों के रूप में की जा सकती है। उन्होंने कहा, "वानरों का अधिकांश व्यवहार, अभ्यास मात्र होता है।" "भाषा अभी भी मानव प्रजाति की एक महत्वपूर्ण परिभाषा के रूप में मौजूद है।" इस विपरीत प्रतिक्रिया में टेरेस अब यह तर्क देते हैं कि निम द्वारा एएसएल का इस्तेमाल एक मानवीय भाषा को अपनाना नहीं था। निम ने कभी स्वयं बातचीत की शुरुआत नहीं की, नये शब्दों का इस्तेमाल शायद ही कभी किया और लोगों ने जो किया उसने सिर्फ़ उसकी नकल की। निम के वाक्य इंसानी बच्चों के विपरीत ज्यादा लंबे नहीं होते थे जिनकी शब्दावली और वाक्य की लंबाई एक मजबूत आपसी संबंध को प्रदर्शित करते हैं।[32]

स्मरण शक्ति

क्योटो विश्वविद्यालय के प्राइमेट रिसर्च इन्स्टिट्यूट में 30-साल तक किये गये एक अध्ययन ने यह दिखाया कि चिम्पांजी 1 से 9 तक की संख्याओं और उनके मानों की पहचान करना सीखने में सक्षम हैं। इससे आगे चिम्पांजी ने फोटोग्राफ़ संबंधी स्मरण शक्ति के प्रति एक रुझान दिखाया, जिसे प्रयोगों में दिखाया गया था जिसमें 1 से 9 तक की संयुक्त संख्याओं को एक कंप्यूटर स्क्रीन पर एक सेकंड के चौथाई हिस्से से भी कम समय तक फ़्लैश किया गया था जिसके बाद चिम्प, अयूमू आरोही क्रम में दिखाये गये स्थानों को सही तरीके से और तुरंत बताने में सफ़ल रहा था। यही प्रयोग विश्व स्मरण शक्ति चैम्पियन बेन प्रिड्मोर द्वारा कई कोशिशों के बावजूद असफ़ल रहा था।[33]

वानरों में हँसी

खेलता हुआ युवा चिम्पांजी

हँसी मनुष्यों की तरह सीमित या विशिष्ट नहीं हो सकती है। चिम्पांजी और मनुष्य की हँसी में भिन्नताएं उन रूपांतरणों का परिणाम हो सकती हैं जो इंसानी बोली के रूप में विकसित हुआ है। दर्पण परीक्षण में देखे गये के अनुसार किसी की स्थिति के बारे में आत्म-जागरूकता या दूसरे की अवस्था के साथ उसकी पहचान करने की क्षमता (देखें मिरर न्युरोंस), हँसी के लिये आवश्यक शर्तें हैं, इसीलिये संभवतः जानवरों के हँसने का तरीका भी मनुष्यों के समान ही होता है।

चिम्पांजी, गोरिल्ला और ओरांगउटान शारीरिक संपर्क जैसे कि कुश्ती, पीछा करने के खेल या गुदगुदी के जवाब में हँसी की तरह के स्वरोच्चारण का प्रदर्शन कर सकते हैं। यह जंगली और कैद में रखे गये चिम्पांजियों के मामले में प्रलेखित है। आम चिम्पांजी की हँसी को मनुष्यों द्वारा आसानी से नहीं पहचाना जा सकता है क्योंकि यह साँस लेने और छोड़ने की वैकल्पिक क्रियाओं से उत्पन्न होती है जिसकी आवाज काफ़ी हद तक साँस लेने या हाँफने जैसी होती है। कई ऐसे उदाहरण हैं जिनमें गैर-मानव प्रजातियों को खुशी जाहिर करते दिखाया गया है। एक अध्ययन में मानव शिशु और बोनोबोज के गुदगुदी करने पर निकाले गये आवाजों का विश्लेषण किया गया और इन्हें रिकार्ड किया गया है। ऐसा देखा गया है कि हालांकि बोनोबो की हँसी उच्च आवृत्ति की थी, इस हँसी में मानव शिशुओं के समान हँसी के तरीके का अनुसरण किया गया था और इसमें चेहरे के भाव भी उसी तरह के थे। मनुष्य और चिम्पांजी के शरीर में एक जैसी जगहों पर गुदगुदी होती है जैसे कि काँख और पेट. चिम्पांजियों में गुदगुदी का आनंद उम्र के साथ कम नहीं होता है।[34]

गुस्सा

तंजानिया के महाले नेशनल पार्क में नर चिम्पांजी

आम वयस्क चिम्पांजी विशेष रूप से नर बहुत ही आक्रामक हो सकते हैं। ये अपने क्षेत्र के प्रति अति संवेदनशील होते हैं और अन्य चिम्पांजियों को जान से भी मार सकते हैं।[35] चिम्पांजी निम्न श्रेणी के प्राइमेट्स जैसे कि रेड कोलोबस[36] और बुश बेबीज[37][38] का लक्ष्य बनाकर शिकार करने में भी संलग्न रहते हैं और इन शिकारों से प्राप्त माँस का इस्तेमाल अपने समुदाय के बीच "सोशल टूल" के रूप में करते हैं।[39] फ़रवरी 2009 में एक ऐसी घटना के बाद जिसमें ट्रैविस नामक एक पालतू चिम्प ने स्टैन्फ़ोर्ड, कनेक्टिकट में एक मादा पर हमला किया था और उसे विकृत कर दिया था, जिसके बाद अमेरिकी प्रतिनिधि सभा ने संयुक्त राज्य अमेरिका में आदिम पालतू जानवरों पर प्रतिबंध को मंजूरी दी थी।[40]

इंसानों से मेलजोल

इतिहास

ग्रेगोइरे: 62 वर्षीय वृद्ध चिम्पांजी

अफ़्रीकियों का चिम्पांजियों के साथ सहस्त्राब्दियों से संपर्क रहा है। कुछ अफ़्रीकी गाँवों, विशेषकर कांगो के लोकतांत्रिक गणराज्य में चिम्पांजियों को सदियों तक पालतू जानवरों के रूप में रखा गया था। देश के पूर्व में स्थित विरुंगा नेशनल पार्क में पार्क के अधिकारी नियमित रूप से उन लोगों से चिम्पांजियों को जब्त कर लेते थे जो उन्हें पालतू जानवरों के रूप में रखते थे।[41] यूरोपीय लोगों के साथ चिम्पांजियों का पहला सम्पर्क 17वीं सदी के दौरान वर्तमान समय के अंगोला में दर्ज किया गया था। पुर्तगाली राष्ट्रीय संग्रहालय (टोरे डो टोम्बो) में संरक्षित पुर्तगाली अन्वेषक ड्वार्टे पैचेको परेरा (1506) की डायरी संभवतः यह बताने वाला पहला यूरोपीय दस्तावेज है कि चिम्पांजियों ने अपने चट्टानी औजारों स्वयं बनाया था।

हालांकि “चिम्पांजी” नाम का पहला प्रयोग 1738 तक नहीं देखा गया था। यह नाम शिलूबा भाषा के शब्द "किविली-चिम्पेन्जे" से लिया गया है जो इस जानवर का स्थानीय नाम है और इसका साधारण अनुवाद "मॉकमैन" या सम्भवतः सिर्फ़ "वानर" है। भाषा विज्ञान में "चिम्प " को काफ़ी हद तक 1870 के दशक के अंत में किसी समय शामिल किया गया था।[42] जीव विज्ञानियों ने पैन को इस जानवर के जीनस नाम रूप में रखा है। चिम्पांजियों तथा अन्य वानरों के बारे में कथित रूप से प्राचीन काल के पश्चिमी लेखकों को ज्ञात था; लेकिन उनकी यह जानकारी मुख्यतः यूरोपीय यात्रियों के खंडित वर्णनों से उपजे यूरोपीय और अरब समाज के मिथकों या किंवदंतियों पर ही आधारित थी। वानरों का उल्लेख अरस्तू और अंग्रेजी बाइबल में भी कई जगह किया गया है जहाँ इन्हें सोलोमन द्वारा एकत्र किये जाने के रूप में वर्णित किया गया है। (1 किंग्स 10:22. हालांकि हिब्रू शब्द qőf का मतलब वानर हो सकता है). कुरान में भी वानरों का उल्लेख किया गया है (7:166), जहाँ शब्बत का उल्लंघन करने वाले इजरायलियों से अल्लाह कहते हैं "बी ये एप्स".

इन प्रारम्भिक अंतरमहाद्वीपीय चिम्पांजियों में से पहला अंगोला से आया था और उसे 1640 में ओरेंज के राजकुमार फ़्रेडरिक हेनरी को उपहार स्वरूप भेंट किया गया था और अगले कई सालों तक इसके भाई-बंधुओं द्वारा इस सिलसिले का अनुसरण किया गया था। वैज्ञानिकों ने इन पहले चिम्पांजियों का वर्णन "पिग्मीज" के रूप में किया और मनुष्य के साथ इनकी गहरी समानता पर ध्यान दिया। अगले दो दशकों में यूरोप में अनेकों जीवों का आयात किया गया जिन्हें मुख्यतः विभिन्न प्राणी उद्यानों में दर्शकों के मनोरंजन हेतु मंगाया गया था।

ह्यूगो रीन्होल्ड की 'एफे मिट शाडेल ("दिमाग वाला वानर"), 19 वीं सदी के अंत में चिम्पांजियों को किस प्रकार देखा जाता था उसका एक उदाहरण है।

डार्विन के प्राकृतिक चयन के सिद्धांत (1859 में प्रकाशित) ने चिम्पांजियों अधिकांश जीव विज्ञान में वैज्ञानिकों की दिलचस्पी जगा दी जिसके कारण जंगलों और कैद में रखे गये जानवरों के कई अध्ययन किये गए। उस समय के चिम्पांजियों के पर्यवेक्षक मुख्यतः मनुष्यों से संबंधित व्यवहारों में दिलचस्पी रखते थे। इसको विशुद्ध रूप से वैज्ञानिक नहीं कहा जा सकता क्योंकि ज्यादातर ध्यान इस बात पर केंद्रित किया जा रहा था कि क्या इन जानवरों में ऐसे गुण मौजूद हैं जिन्हें "अच्छा" कहा जा सके; चिम्पांजियों की बुद्धि को अक्सर काफ़ी बढ़ा-चढ़ा कर बताया जाता था, उदाहरण के लिए ह्यूगो रेनहोल्ड की अति प्रसिद्ध एफ़े मिट शैडेल (बायीं ओर के चित्र को देखें) में. 19वीं सदी के अंत तक चिम्पांजी मनुष्यों के लिये काफ़ी हद तक एक रहस्य बने हुये थे जिसकी बहुत ही कम वैज्ञानिक जानकारी उपलब्ध थी।

लॉस एंजिल्स चिड़ियाघर में चिम्पांजी

20वीं सदी में चिम्पांजी व्यवहार में वैज्ञानिक शोध के एक नए अध्याय का शुभारंभ हुआ। 1960 से पहले चिम्पांजी के अपने प्राकृतिक आवास में उसके व्यवहार के बारे में लगभग कोई भी जानकारी नहीं थी। उसी साल जुलाई में जेन गुडऑल तंजानिया के गोम्बे वन में चिम्पांजियों के बीच रहने के लिये चली गयीं जहाँ उन्होंने प्राथमिक रूप से कासाकेला चिम्पांजी समुदाय के सदस्यों पर अध्ययन किया। उनकी यह खोज धमाकेदार थी कि चिम्पांजी अपने औजार स्वयं बनाते थे और उनका उपयोग करते थे, क्योंकि पहले यह माना जाता था कि ऐसा करने वाली एकमात्र प्रजाति मानव है। चिम्पांजियों पर सबसे अधिक प्रगतिशील प्रारंभिक अध्ययन वोल्फ़गैंग कोहलर और राबर्ट यर्केस द्वारा किये गये थे, दोनों ही प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक थे। दोनों वैज्ञानिकों और उनके साथियों ने चिम्पांजियों की सीखने, विशेषकर समस्या को सुलझाने की बौद्धिक क्षमता के बारे में अध्ययन पर खास तौर से ध्यान केंद्रित करने वाले चिम्पांजियों के प्रयोगशाला अध्ययनों को निर्धारित किया। इसमें प्रयोगशाला के चिम्पांजियों पर विशेष रूप से बुनियादी, व्यावहारिक परीक्षणों को शामिल किया गया था जिसके लिये साफ़ तौर पर एक उच्च स्तरीय बौद्धिक क्षमता (जैसे कि पहुँच से दूर मौजूद केले को हासिल करने की समस्या का समाधान कैसे करें) की आवश्यकता थी। उल्लेखनीय रूप से यर्केस ने जंगलों में चिम्पांजियों पर विस्तारित परीक्षण किये जिससे चिम्पांजियों और उनके व्यवहार की वैज्ञानिक समझ को विकसित करने में काफ़ी मदद मिली। यर्केस ने द्वितीय विश्व युद्ध के समय तक चिम्पांजियों पर अध्ययन किया जबकि कोहलर ने पाँच वर्ष के अध्ययन के नतीजे को अपनी प्रसिद्ध रचना 1925 में (जो संयोगवश वही समय था जब यर्केस ने अपना विश्लेषण शुरु किया था) मेंटालिटी आफ़ एप्स में प्रकाशित किया, उन्होंने अंततः यह निष्कर्ष दिया कि "चिम्पांजी मनुष्यों में देखे जाने वाले सामान्य तरह के बौद्धिक व्यवहार को विकसित कर लेते हैं।.. एक ऐसा व्यवहार जिसे विशेष तौर पर मनुष्यों में देखा जाता है" (1925).[43]

अमेरिकन जर्नल आफ़ प्राइमेटोलोजी के अगस्त 2008 के अंक में तंजानिया के महाले माउंटेन्स नेशनल पार्क में चिम्पांजियों पर एक साल तक चले एक अध्ययन के परिणामों के बारे में बताया गया था जिसमें यह साक्ष्य प्रस्तुत किये गये थे कि चिम्पांजी वायरस के संक्रमण से होने वाली बीमारियों के शिकार होते हैं जो संभवतः उन्हें मनुष्यों के सम्पर्क से हुआ होगा। आणविक, सूक्ष्मदर्शीय और महामारी संबंधी जाँचों ने यह दिखाया कि महाले माउंटेन नेशनल पार्क में रहने वाले चिम्पांजी एक सांस की बीमारी से ग्रस्त थे जिसका कारण सम्भवतः मानव पारामाइक्सोवायरस का एक प्रकार था।[44]

अध्ययन

अंतरिक्ष में जाने वाला चिम्पांजी एनोस, 1961 में मर्करी-एटलस 5 कैप्सूल में डाले जाने से पहले.

नवंबर 2007 तक अमेरिका की 10 प्रयोगशालाओं में (वहाँ कैद में रहने वाले 3,000 विशाल वानरों में से) 1300 चिम्पांजी मौजूद थे जिन्हें या तो जंगलों से पकड़ा गया था या फ़िर सर्कसों, पशु प्रशिक्षकों या चिड़ियाघरों से प्राप्त किया गया था।[45] ज्यादातर प्रयोगशालाओं में या तो शोध को स्वयं किया गया या शोध के लिए चिम्पांजियों को उपलब्ध कराया;[46] इस शोध को "संक्रामक एजेंट के साथ टीकाकरण, चिम्पांजी के हित के लिये नहीं बल्कि शोध के लिये की जाने वाली शल्य चिकित्सा या बायोप्सी और/या औषधि परीक्षण" के रूप में परिभाषित किया गया।[47] संघ द्वारा वित्त पोषित दो प्रयोगशालाएं चिम्पांजियों का प्रयोग करती हैं: जॉर्जिया के अटलांटा में इमोरी यूनिवर्सिटी में यर्केस नेशनल प्राइमेट रिसर्च लेबोरेटरी और टेक्सास के सैन एंटोनियो में साउथवेस्ट नेशनल प्राइमेट सेंटर.[48] अमेरिका में पाँच सौ चिम्पांजियों को प्रयोगशाला में इस्तेमाल से रिटायर कर दिया गया है और ये अमेरिका या कनाडा में अभयारण्यों में रहते हैं।[46]

जैव-चिकित्सा संबंधी अनुसंधान में इस्तेमाल किये गए चिम्पांजियों को ज्यादातर प्रयोगशाला संबंधी जानवरों के मामले में प्रयोग करने के बाद मार डालने के प्रचलन की बजाय कई दशकों तक बार-बार इस्तेमाल किया जाता है। अमेरिका की प्रयोगशालाओं में वर्तमान में मौजूद कुछ चिम्पांजियों को 40 से अधिक वर्षों से प्रयोगों में इस्तेमाल किया जा रहा है।[49] प्रोजेक्ट आरएंडआर के अनुसार अमेरिका की प्रयोगशालाओं में रखे गये चिम्पांजियों को मुक्त करने के लिये एक अभियान – न्यू इंगलैंड एंटी-विविसेक्शन सोसायटी द्वारा जेन गुडऑल और अन्य प्राइमेट शोधकर्ताओं के सहयोग से चलाया जा रहा है – अमेरिकी प्रयोगशाला में सबसे पुराना ज्ञात चिम्प, वेनका है जिसका जन्म 21 मई 1954 को फ़्लोरिडा की एक प्रयोगशाला में हुआ था।[50] उसे उसके जन्म के दिन ही एक दृष्टि प्रयोग में इस्तेमाल के लिये उसकी माँ से अलग कर दिया गया था, यह प्रयोग 17 महीनों तक चला और उसके बाद उसे एक पालतू जानवर के रूप में उत्तरी कैरोलिना के एक परिवार को बेच दिया गया। 1957 में उसे फ़िर से यर्केस नेशनल प्राइमेट रिसर्च सेंटर में वापस लाया गया जब वह इतना बड़ा हो गया था कि उसे संभालना मुश्किल हो गया था। तब से उसने छः बार अपने बच्चों को जन्म दिया है और उसे शराब के इस्तेमाल, खाने वाले गर्भ निरोधकों, बुढ़ापा और संज्ञानात्मक अध्ययनों में इस्तेमाल किया गया है।[51]

चिम्पांजी जीनोम के प्रकाशन के साथ प्रयोगशालाओं में चिम्पांजियों के इस्तेमाल को बढ़ाने की कथित तौर पर योजनाएं तैयार की गयी हैं जिसके बारे में कुछ वैज्ञानिकों का तर्क है कि शोध के लिये चिम्पांजियों के प्रजनन पर संघीय प्रतिबंध (फ़ेडरल मोरेटोरियम) को हटा लिया जाना चाहिये। [48][52] यू.एस. नेशनल इन्स्टिट्यूट्स आफ़ हेल्थ (एनआईएच) द्वारा 1996 में पाँच साल का एक प्रतिबंध लगाया गया था क्योंकि एचआईवी संबंधी शोध के लिये बड़ी संख्या में चिम्पांजियों को पैदा किया जा रहा था और इसे 2001 के बाद से वार्षिक रूप से आगे बढ़ाया जा रहा था।[48]

अन्य शोधकर्ताओं का तर्क है कि चिम्पांजी विशिष्ट प्रकार के जानवर हैं और इनका इस्तेमाल या तो प्रयोगशालाओं में नहीं किया जाना चाहिये या फ़िर इनके साथ अलग तरह से व्यवहार किया जाना चाहिये। एक विकासवादी जीव विज्ञानी और सैन डियेगो में कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय के प्राइमेट विशेषज्ञ, पास्कल गैग्नियक्स यह तर्क देते हैं कि चिम्पांजियों की अपने बारे में समझ, औजारों का इस्तेमाल और मनुष्यों से आनुवंशिक समानता को देखते हुए चिम्पांजियों के इस्तेमाल से किये जाने वाले अध्ययनों में उन नैतिक दिशानिर्देशों का पालन किया जाना चाहिये जिन्हें आम-सहमति देने में अक्षम मानवीय विषयों के लिये इस्तेमाल किया जाता है।[48] इसके अलावा हाल के एक अध्ययन में यह बताया गया है कि प्रयोगशालाओं से मुक्त किये गये चिम्पांजियों में यातना के बाद होने वाली एक तनाव संबंधी समस्या देखी जाती है।[53] यर्केस नेशनल प्राइमेट रिसर्च लैबोरेटरी के निदेशक, स्टुअर्ट ज़ोला इस बात से सहमत नहीं हैं। उन्होंने नेशनल ज्योग्राफ़िक को बताया: "मुझे नहीं लगता है कि हमें किसी प्रजाति के साथ मानवीय रूप से व्यवहार करने के लिये अपने दायित्व के बीच किसी तरह का अंतर रखना चाहिये, चाहे यह कोई चूहा हो या बंदर हो या फ़िर चिम्पांजी. इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है कि हम इसका कितना भला चाह सकते हैं, आखिरकार चिम्पांजी इंसान नहीं हैं।"[48]

सरकारों द्वारा विशाल वानरों के शोध पर प्रतिबंध लगाने की संख्या बढ़ती जा रही है जो शोध या जहरीले परीक्षणों में चिम्पांजियों और अन्य विशाल वानरों के इस्तेमाल पर रोक लगाती है।[54] वर्ष 2006 तक ऑस्ट्रिया, न्यूजीलैंड, नीदरर्लैंड, स्वीडन और ब्रिटेन ने इस तरह के प्रतिबंधों की शुरुआत की है।[55]

लोकप्रिय संस्कृति में

चिम्पांजियों को लोकप्रिय संस्कृति में एक समान रूप से दिखाया गया है जहाँ उन्हें ज्यादातर मानकीकृत भूमिकाओं[56] जैसे कि बच्चों जैसे साथियों के रूप में, खास सहयोगियों या जोकरों के रूप में शामिल किया गया है।[57] अपने चेहरे की प्रमुख विशिष्टताओं, लम्बे हाथ-पैरों और तेजी से चलने-फ़िरने के कारण खास सहयोगियों या जोकरों की भूमिका के लिये ये विशेष रूप से अनुकूल होते हैं, जो मनुष्यों के लिये मनोरंजक होते हैं।[57] इसी प्रकार चिम्पांजियों को मनुष्यों की तरह कपड़े पहनाकर दिखाने के मनोरंजक कार्य सर्कसों और रंगमंचीय कार्यक्रमों के पारंपरिक स्टेपल्स रहे हैं।[57]

टेलीविजन के युग में चिम्प की भूमिका के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका में एक नयी शैली की शुरुआत हुई है: एक ऐसी सीरीज जिसके पात्रों में चिम्पांजियों को पूरी तरह से मनुष्यों जैसे कपड़े पहने और मानव अभिनेताओं द्वारा डब की गयी लाइनों पर "बोलते" हुए दिखाया जाता है।[56] ये कार्यक्रम, जिनके उदाहरणों में 1970 के दशक में लैन्सेलोट लिंक, सीक्रेट चिम्प या 1990 के दशक में द चिम्प चैनल शामिल हैं, अपनी पुरानी, कम हास्य वाली कथाओं को मजेदार बनाने के लिये वानर पात्र की विलक्षणता पर भरोसा किया गया था।[56] उनके चिम्पांजी "अभिनेता" सर्कस के किसी खेल में वानरों के समान आपस में बदले जाने योग्य होते थे जो चिम्पांजियों की तरह मनोरंजक होते थे ना कि व्यक्तिगत तौर पर.[56] मानव अधिकार समूह पेटा ने पशुओं के साथ होनेवाले दुरुपयोग का हवाला देते हुए विज्ञापन दाताओं को टेलीविजन और व्यावसायिक विज्ञापनों में चिम्पांजियों के इस्तेमाल के विरुद्ध आग्रह किया था।[58]

जब अन्य टीवी कार्यक्रमों में चिम्पांजियों को दिखाया जाता है, आम तौर पर उन्हें हास्यपूर्ण ढंग से मनुष्यों को सहायता पहुँचाने के लिये ऐसा करते हुए पेश किया जाता है। उदाहरण के लिये उस भूमिका में जे. फ़्रेड मग्स टुडे शो के प्रस्तोता (होस्ट) डेव गैरोवे के साथ 1950 के दशक में, जूडी 1960 के दशक में डक्टारी में या डार्विन द वाइल्ड थोर्न बेरीज में 1990 के दशक में दिखाई दिये थे।[56] इसके विपरीत अन्य जानवरों के काल्पनिक चित्रणों में जैसे कि कुत्तों (लैसी के रूप में), डॉल्फ़ीन्स (फ़्लिपर), घोड़े (द ब्लैक स्टैलियन) या यहाँ तक कि अन्य विशाल वानरों (किंग कांग), चिम्पांजी के पात्र और उनकी भूमिकाएं शायद ही कभी कथानक के लिये प्रासंगिक होती हैं।[56]

विज्ञान कथा में भूमिकाएं

चिम्पांजियों के व्यक्तिगत चित्रण और किसी कथानक में आकस्मिक की बजाय उनकी केंद्रीय भूमिका को[56] आम तौर पर विज्ञान कथाओं में देखा जा सकता है। रॉबर्ट ए. हेनलेन की लघु कथा "जेरी वाज ए मैन" (1947) में एक आनुवंशिक रूप से विकसित चिम्पांजी द्वारा बेहतर चिकित्सा के लिए किये गए मुकदमे को दर्शाया गया है। 1972 की निकट भविष्य पर आधारित फ़िल्म कॉन्क्वेस्ट ऑफ द प्लानेट ऑफ द एप्स में एकमात्र बोलने वाले चिम्पांजी, सीजर के नेतृत्व में गुलाम वानरों द्वारा अपने मानव मालिकों के खिलाफ़ विद्रोह का चित्रण दर्शाया गया था।[56] वर्तमान समय पर आधारित रॉबर्ट सिल्वरबर्ग द्वारा लिखित एक अन्य लघु कथा "द पोप ऑफ द चिम्प्स" में चिम्पांजियों के एक समूह में धार्मिकता के चिह्नों को विकसित होते दिखाया गया है, जो उनके व्यवहार पर नज़र रखने वालों के लिये काफ़ी हद तक आश्चर्यजनक था। डेविड बर्न के सुधारक उपन्यासों में भविष्य की एक ऐसी स्थिति को प्रस्तुत किया गया है जिसमें मनुष्यों द्वारा चिम्पांजियों (और कुछ अन्य प्रजातियों) का "उत्थान" करके उनमें मानव-स्तरीय क्षमताओं को विकसित किया जाता है।

इन्हें भी देखें

Mammals प्रवेशद्वार

सन्दर्भ

सामान्य संदर्भ

अग्रिम पठन

बाहरी कड़ियाँ

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