चर्म रोग

एक प्रकार की असामान्य अवस्था जो त्वचा , बाल और नाखूनो को प्रभावित करती है।
(त्‍वचा रोग से अनुप्रेषित)

त्वचा के किसी भाग के असामान्य अवस्था को चर्मरोग या त्वग्रोग कहते हैं। त्वचा शरीर का सबसे बड़ा तन्त्र है। यह सीधे बाहरी वातावरण के सम्पर्क में होता है। इसके अतिरिक्त बहुत से अन्य तन्त्रों या अंगों के रोग (जैसे बवासीर) भी त्वचा के माध्यम से ही अभिव्यक्त होते हैं। (या अपने लक्षण दिखाते हैं)

एक चर्मरोग

त्वचा शरीर का सबसे विस्तृत अंग है साथ ही यह वह अंग है जो बाह्य जगत् के सम्पर्क में रहता है। यही कारण है कि इसे अनेक वस्तुओं से क्षति पहुँचती है। इस क्षति का प्रभाव शरीर के आन्तरिक अवयवों पर नहीं पड़ता। त्वग्रोग विभिन्न प्रकार के होते हैं। त्वचा सरलता से देखी जा सकती है। इस कारण इसके रोग, चाहे चोट से हों अथवा संक्रमण से हों, रोगी का ध्यान अपनी ओर तुरन्त आकर्षित कर लेते हैं।

त्वचा रोगों के विभिन्न कारण

त्वचा के रोग अनेक कारणों से होते हैं। इन कारणों पर प्रकाश डालने से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि प्रत्येक मनुष्य की त्वचा एक जैसी नहीं होती और न ही इस पर समान कारणों का एक जैसा प्रभाव ही पड़ता है।

जन्मजात कारण

त्वचा संबंधी कुछ रोग जन्म से होते हैं, जिनका कारण त्वचा का कुविकास (maldevelopment) है। इस प्रकार के रोग जन्म के कुछ दिन पश्चात् ही माता एवं अन्य लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हैं, उदाहरणार्थ लाल उठे हुए धब्बे (nevus), जिनमें रक्त झलकता है। ये शरीर के किसी अंग पर निकल सकते हैं। ये चिह्न (scar) तीन चार वर्ष की आयु में अपने आप मिट जाते हैं। इनकी किसी विशेष चिकित्सक से चिकित्सा करानी चाहिए, जिससे कोई खराब, उभरा हुआ चिह्न न रह जाए।

इसके अतिरिक्त कुछ मनुष्यों की त्वचा सूखी और मछली की त्वचा की भाँति होती है। यह जन्म भर ऐसी ही रहती है। ऐसे व्यक्ति को साबुन का प्रयोग नहीं करना चाहिए। कुछ मनुष्यों की त्वचा, बाल और आँखों का स्वच्छ मंडल (cornea) श्वेत होता है। ऐसे व्यक्ति को सूरजमुखी, अथवा वर्णहीन (albino), कहते हैं। सूर्य की किरणें इनके लिए अत्यंत हानिकारक होती हैं, अत: इन्हें सदैव धूप से बचे रहना चाहिए तथा धूप में निकलते समय "धूप का चश्मा" उपयोग में लाना चाहिए।

भौतिक कारण

त्वचा पर भौतिक कारणों (physcial causes) से भी कुछ रोग होते हैं, जैसे किसी वस्तु के त्वचा पर दबाव तथा रंग, गरमी, सरदी एवं एक्सरे (x-rays) के प्रभाव के कारण उत्पन्न रोग। त्वचा पर कठोर दबाव के कारण ठेस पड़ जाती है जिसमें दबाव के कारण पीड़ा होती है। कभी कभी ऐसा भी देखा गया है कि निरंतर दबाव पड़ने पर त्वचा पतली पड़ जाती है, जैसे पोतों में आँत उतरना। इसकी रोकथाम के लिये कमानी पहनते हैं।

अधिक भीगने पर त्वचा सिकुड़ती है और छूटने लगती है। इस तरह की त्वचा पर साबुन का बुरा प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार की त्वचा धोबी, घर में काम काज करनेवाले नौकर होटल के रसोइए तथा बरतन साफ करनेवालों की होती है। हाथ पैर की त्वचा के साथ साथ उँगलियों और नाखून पर भी इसका प्रभाव पड़ता है।

त्वचा पर ठंड का भी बुरा प्रभाव पड़ता है, विशेषकर यदि ताप शून्य से नीचा हो। अधिक शीत से त्वचा की कोमल (delicate) छोटी छोटी महीन रक्तवाहनी शिराएँ सिकुड़ने लगती हैं तथा त्वचा नीली पड़ जाती है, इन शिराओं में रक्त जम जाता है तथा अंग गल जाता है। इस रोग को तुषाररोग (frost-bite) कहते हैं। इस का प्रभाव कान, नाक और हाथ पैर की उँगलियों पर पड़ता है। इस रोग की प्राथमिक चिकित्सा का ज्ञान उन सैनिकों के लिये अत्यंत आवश्यक है, जो पर्वतीय सीमा की रक्षा करते हैं। जिस अंग की त्वचा पर तुशाररोग का प्रभाव हो उसको आराम से रखना चाहिए तथा साफ करने के बाद ऊनी कपड़े से लपेट देना चाहिए। मालिश और सेंक हानिकारक हैं।

अधिक शीत के कारण कुछ लोगों के हथ पैर की उँगलियाँ सूज जाती हैं, लाल पड़ जाती हैं और उनमें घाव भी हो जाते हैं। इस रोग से बचने के लिये पौष्टिक भोजन करना चाहिए और उँगलियों को दस्तना पहनकर गरम रखना चाहिए। यहाँ पौष्टिक भोजन से तात्पर्य अधिक प्रोटीन और वसायुक्त भोज से है।

रसायनों का प्रभाव

त्वचा पर रासायनिक पदार्थों, जैसे क्षार तथा अम्ल आदि, का बुरा प्रभाव पड़ता है। भारत संप्रति औद्योगीकरण की ओर अग्रसर हो रहा है, अतएव अनेक प्रकार के रासायनिक पदार्थों का प्रयोग अनिवार्य है। ऐसी स्थिति में त्वचा के बहुत से रोग त्वचा पर इन रसायनकों के बुरा प्रभाव डालने के कारण दृष्टिगोचर होंगे।

आधुनिक समय में अन्य देशें में व्यावसायिक त्वचारोंगों (occupational skin diseases) की ओर अधिक ध्यान दिया जा रहा है। किसी औद्योगिक संस्था में श्रमिक के प्रवेश करते समय यह देखा जाता है कि उस औद्योगिक संस्था में जो रसायन उपयोग में आते हैं, वे श्रमिकों के लिए हानिकारक तो नहीं हैं। दूसरी बात यह है कि ऐसी औद्योगिक संस्थाओं के प्रबंधक एवं चिकित्सक यह भी देखते हैं कि समस्त कर्मचारी उचित प्रकार से हाथ पाँव धोते हैं और काम के पश्चात् अपने कपड़े बदलते हैं अथवा नहीं। जिन कपड़ों को पहन कर वे रसायनकों का प्रयोग करते हैं, उन्हें काम के पश्चात् तुरंत बदल लेना चाहिए, जिससे शरीर पर उन पदार्थों का बुरा प्रभाव अधिक देर तक न पड़ता रहे।

आजकल प्रगतिशील देशों में औद्योगिक संस्थाएँ इन समस्त बातों पर पूरा पूरा ध्यान रखती हैं और इस बात पर भी ध्यान देती हैं कि कारखानों की त्वचा पर बुरा प्रभाव न डाल सकें। कर्मचारी के स्वास्थ्य का पूरा पूरा ध्यान रखा जाता है। प्रत्येक कर्मचारी का जीवन बीमा होता है, जिससे काम के मध्य यदि वह रोगग्रस्त हो जाए तो उसकी चिकित्सा उचित प्रकार से हो सके। जिस अवधि तक वह रोगग्रस्त रहता है, उस अवधि का वेतन जीवन बीमा कंपनी देती है और उसकी उचित चिकित्सा भी करवाती है। इसके अतिरिक्त, यदि यह सिद्ध हो जाता है कि कर्मचारी को कोई रोग कारखानों में कार्य करते समय और वहाँ की किसी ऐसी वस्तु को स्पर्श करने से हुआ है, जो हानिकारक है, तो उस फैक्टरी या कारखाने के प्रबंधकों की ओर से क्षतिपूर्ति (compensation) के रूप में कुछ धन भी कर्मचारी को दिलाया जाता है।

अस्वच्छता एवं संसर्गजनित रोग

हमारे देश में अधिकांशत: त्वचा के वे रोग देखे जाते हैं, जो शरीर की पूर्ण सफाई न करने, निर्धनता, निरंतर स्नान न करने तथा रोगी पशुओं की त्वचा के स्पर्श से हो जाते हैं। इस प्रकार के रोग छूत के रोग होते हैं और एक दूसरे के संसर्ग से लग जाते हैं। ऐसे रोगों में अधिकांश रूप से खाज (scabies), जूँ(pediculosis) और दाद (ringworm) इत्यादि होते हैं। लोग यह सोचते हैं कि इन रोगों के जीवाणुओं को मारने के लिये तीव्र से तीव्र औषधियों का प्रयोग करना चाहिए। यह विचार निर्मूल एवं गलत है। ऐसा करने से त्वचा को बहुत हानि पहुँचती है। लोगों को इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि वे सब रोग, जिनमें खुजली एक सामान्य उपसर्ग है, भिन्न भिन्न कारणों से होते हैं। खाज के लिये गंधक का मरहम बहुत लाभदायक है। रोग के पूरे निदान के लिये चिकित्सक की आवश्यकता पड़ती है। गंधक के मरहम को शरीर पर रात में लगाकर सोना चाहिए। मरहम तीन बार लगाना काफी होगा।

सिर की जूँ से छुटकारा पाने के लिये सिर की सफाई करना तथा बालों को कटवाना चाहिए और डी.डी.टी. (D.D.T.) या अन्य औषधियों का प्रयोग चिकित्सक की संमति के अनुसार करें। खुजली तथा जूँ से छुटकारा पाने के लिये अन्य चीजों से उतना लाभ नहीं होता जितना उपर्युक्त औषधियों से।

दाद पर ऐसा मरहम न लगाना चाहिए, जो त्वचा को हानि पहुँचाए। पसीना आनेवाले स्थानों पर यह रोग अधिक देखा जाता है। इस कारण ऐसे स्थानों को पाउडर द्वारा सूखा रखना चाहिए। साथ ही मरहम और पाउडर का प्रयोग दाद के ठीक होने के पश्चात् भी कुछ समय तक निरंतर करते रहना चाहिए। इस रोग के लिये अभी एक ऐसी औषधि निकली है जो टिकिया (tablet) के रूप में खाई जाती है। यह रोग के लिये अत्यंत लाभदायक है।

ये रोग कभी कभी पकनेवाली खुजली के रूप में होते हैं और हमारी त्वचा पर जो जीवाणु मित्र के समान रहते हैं, शत्रु हो जाते हैं। इन जीवाणुओं को मारने के लिये पेनिसिलिन (penicillin) और सल्फा (sulpha) मरहम, जैसे सिबाज़ोल (cibazol), हानिकारक हैं।

त्वचा पर रहने वाले जीवाणु (बैक्टिरिया)

त्वचा पर रहनेवाले जीवाणु अधिकतर अपने आप ही त्वचा के रोग का कारण हो जाते हैं, जो फोड़े (boils), फुंसियों (furrunculosis) के रूप में प्रकट होता है। इन सब में जीवाणु किसी छुपनेवाले स्थान, जैसे नाक, में छिपे रहते हैं। इस कारण यह आवश्यक है कि चिकित्सा के समय इनपर भी ध्यान दिया जाय। इन रोगों की चिकित्सा में खाने तथा लगाने की दवा का प्रयोग करना चाहिए। जिस जगह की त्वचा पर ये रोग प्रकट हों उसकी सफाई का पूरा ध्यान रखना चाहिए। इन रोगों के लिये कोई मरहम, जिसमें कि चिकित्सक ज़िंक ऑक्साइड (Zinc oxide), हाइडेमॉन (hydammon), आयोडॉक्सिक्विऑनलिन (codoxyquionlin) इत्यादि मिलाते हैं, लगाना चाहिए और सल्फा तथा ऐंटिबायोटिक (antibiotic) वर्ग की औषधि का मुँह, अथवा इंजेक्शन द्वारा, प्रयोग करना चाहिए।

मधुमेह के जीवाणु अत्यधिक हानिकारक होते हैं और कारबंकल (carbuncle) रोग पैदा करते हैं, जिसकी चिकित्सा समझदारी के साथ और तत्काल करनी चाहिए, जिससे जीवन को कोई हानि न हो।

इनके अतिरिक्त त्वचा के कुछ और रोग भी हैं, जो बहुत ही सूक्ष्म जीवाणुओं द्वारा होते हैं। इनमें से एक रोग को गोखरू (wart or molluscum contagiosum) कहते हैं। यह छूत का रोग है। इसी प्रकार का एक और रोग है, जिसे हरपीज़जॉस्टर (Herpeszoster) कहते हैं। यह पता नहीं है कि इसको मकड़ी फलना क्यों कहते हैं। इसमें शरीर पर छाले पड़ जाते हैं और दर्द होता हैं। आयु के अनुसार ही पीड़ा का अनुभव होता है, अर्थात् बच्चों को पीड़ा कम होती है और बड़ों को अधिक। एक अन्य रोग हरपीज़ लैबिऐलिस (herpes labialis) और प्रोजेनिटैलिस (progenitalis) भी होता है। इनमें होंठ तथा शिश्न पर ज्वर आदि के बाद छाले पड़ जाते हैं। अभी तक इन रोगों के विषाणुओं (viruses) को मारने की कोई उपयुक्त औषधि ज्ञात नहीं हो सकी है।

अन्य कारण

त्वचा शरीर का बाह्य अवयव है। इस कारण अनेक वस्तुओं का प्रभाव इसपर पड़ता है। यह प्रभाव त्वचा को अत्यंत कोमल और सुग्राही बनाकर छाजन (eczema), या त्वचाशोथ (dermatitis), अथवा पित्ती (urticaria) का रूप धारण कर लेता है। इन रोगों की उचित चिकित्सा के लिये यह जानना आवश्यक है कि त्वचा किस चीज से प्रभावित हुई है। वर्तमान काल में अनेक वस्तुएँ त्वचा को प्रभावित करती हैं, जिनमें नाई का उस्तरा और कांतिवर्धक वस्तुएँ (cosmetics) मुख्य हैं।

त्वचा हमारे शरीर के लिये दर्पण के समान है, जिसपर हँसी, प्रसन्नता, दु:ख तथा खिन्नता का प्रभाव तुरंत पड़ता है। फ्यास (रूसी) का कारण मानसिक परेशानी और नींद न आना है। त्वचा पर अन्य अंगों के रोग का भी प्रभाव पड़ता है, जैसे मधुमेह और पीलिया रोगों में शरीर पर खुजली हो जाती है।

खानपान में आवश्यक पदार्थों की कमी के प्रभाव भी त्वचा पर विभिन्न रोगों के रूप में प्रकट होते हैं। भिन्न भिन्न रोगों के लिये अनेक दवाएँ दी जाती हैं। नई नई दवाएँ नित्य प्रति प्रयोग में आती रहती हैं। भिन्न भिन्न औषधियों का अधिक प्रयोग कने से भी त्वग्रोग होता है, जिसे ड्रग रैश (drugrash) या ड्रग चकत्ता कहते हैं।

पसीना कम निकलने से भी त्वचा के रोग हो सकते हैं। इसी प्रकार चर्बी की ग्रंथि से भी रोग होते हैं। इनमें से एक रोग का नाम मुहाँसा (acne vulgaris) है, जो प्राय: युवा लड़कों तथा लड़कियों में देखा जाता है। वस्तुत: यह रोग नहीं है। इस आयु में लिंग ग्रंथियों के कार्यरत होने के कारण चर्बी की ग्रंथियाँ अपने आप चर्बी उत्पन्न करती हैं। जिसको मुहाँसे का रोग हे उसे मीठा, मिर्च तथा मसाला कम खाना चाहिए। मुहाँसों को नोचना नहीं चाहिए।

त्वचा पर बाल भी होते हैं। कभी कभी सिर के बाल अधिक टूटते हैं। इसके लिये सिर की सफाई और किसी सादे तेल का प्रयोग लाभकर सिद्ध होता है। कभी कभी युवा लड़के, लकड़ियों के बाल कम आयु में ही सफेद हो जाते हैं, जिससे वे दु:खी रहते हैं। परंतु अभी तक कोई औषधि ऐसी ज्ञात नहीं हो पाई है जिसके प्रयोग से यह रोग ठीक हो सके। खिजाब आदि लगाने से कभी कभी अधिक हानि हो जाने की आशंका रहती है। कभी कभी सिर या दाढ़ी के बाल जगह जगह से उड़ जाते हैं। इसका कारण शायद चिंता है। यदि रोगी को विश्वास दिलाते रहें कि उड़े हुए बाल पुन: आ जाएँगे, तो इससे लाभ होता है।

त्वचा के साथ साथ नाखून का भी वर्णन करना आवश्यक है। नाखून में भी त्वचा के समान दाद हो सकती है। कभी कभी नेल पालिश से नाखून शीघ्र टूट जाते हैं या खुरदरे हो जाते हैं।

इसके अतिरिक्त चिंता भी त्वचा का रोग पैदा कर देती है। त्वचा के सफेद होने को सफेद दाग (leucoderma) कहते हैं। अभाग्यवश इसको कोढ़ (कुष्ट) समझा जाता है। इससे रोगी को और चिंता हो जाती है। इस रोग में त्वचा को रूई से छूने से भी सूई छेदने जैसी पीड़ा होने लगती है। लेकिन कुष्ट में पीड़ा नहीं होती। अभी तक इस रोग की कोई संतोषजनक चिकित्सा ज्ञात नहीं हो सकी है।

त्वचा में क्षय रोग के कीटाणु भी त्वचागुलिकार्ति (skin tuberculosis) उत्पन्न करते हैं। इसी प्रकार उपदंश (syphilis) के धब्बे भी त्वचा पर प्रकट होते हैं।

त्वचा के कुछ रोग ऐसे होते हैं, जो पुन: पुन: प्रकट होते हैं, जैसे सोरिऐसिस (psoriasis), इसका वास्तविक कारण अज्ञात है। ल्यूपस एरिथेमटोसस (lupus erythematosus) भी ऐसा ही रोग है।

यदि ठीक समझदारी के साथ चिकित्सा हो तो त्वचा के अधिकतर रोग ठीक हो जाते हैं। त्वचा के थोड़े ही रोग ऐसे होते हैं, जिनसे मृत्यु होती है, जैसे पेंफिगस (pemphigus)। इस रोग में बदन, मुँह और गुप्तेंद्रियों पर छाले निकलते हैं। भाग्यवश इस रोग में कॉटिर्सेस्टेरॉयड (corticesteroid) से एक नवीन आशा उत्पन्न हो गई है और रोग पर बहुत कुछ आधिपत्य पा लिया गया है, किंतु रोगी को जीवन भर अल्प मात्रा में इसका प्रयोग करते रहना चाहिए।

कैंसर (Cancer) रोग शरीर के प्रत्येक अंग में हो सकता है। त्वचा में भी कैंसर हो सकता है। यदि रोग का शीघ्र निदान हो जाता है और शल्यचिकित्सा, डीप एक्सरे (Deep X-ray), रेडियम अथवा अन्य उपचार से लाभ हो जाता है, तो रोगी की आयु बढ़ जाती है।

उदाहरण

  • उंगली की त्वचा खाना Dermatophagia
  • मुंहांसे
  • Actinic keratosis
  • Angioma
  • खिलाडी पांव (Athlete's foot)
  • Aquagenic pruritus
  • Argyria
  • Atopic dermatitis
  • गंजापन (Baldness)
  • Basal cell carcinoma
  • Bed sore
  • Behcet's disease
  • Blepharitis
  • फोडा या ब्रण (Boil)
  • Bowen's disease
  • Bullous pemphigoid
  • Canker sore
  • Carbuncles
  • Cellulitis
  • Chloracne
  • Chronic dermatitis of the hands and feet
  • Cold sores
  • Contact dermatitis (includes poison ivy, oak, sumac)
  • Creeping eruption
  • Dandruff
  • Dermatitis
  • Dermatitis herpetiformis
  • Dermatofibroma
  • Diaper rash
  • Dyshidrosis
  • Eczema
  • Epidermolysis bullosa
  • Erysipelas
  • Erythroderma
  • Friction blister
  • Genital wart
  • Gestational pemphigoid
  • Grover's disease
  • Hemangioma
  • Hidradenitis suppurativa
  • Hives
  • Hyperhidrosis
  • Ichthyosis
  • Impetigo
  • Jock itch
  • Kaposi's sarcoma
  • Keloid
  • Keratoacanthoma
  • Keratosis pilaris
  • Lewandowsky-Lutz dysplasia
  • Lice infection
  • Lichen planus
  • Lichen simplex chronicus
  • Lipoma
  • Lymphadenitis
  • Malignant melanoma
  • Melasma
  • Miliaria
  • Molluscum contagiosum
  • Nummular dermatitis
  • Paget's disease of the nipple
  • Pediculosis
  • Pemphigus
  • Perioral dermatitis
  • Photoallergy
  • Photosensitivity
  • Pityriasis rosea
  • Pityriasis rubra pilaris
  • Porphyria
  • Psoriasis
  • Raynaud's disease
  • Ringworm
  • Rosacea
  • Scabies
  • Scleroderma
  • Scrofula
  • Sebaceous cyst
  • Seborrheic keratosis
  • Seborrhoeic dermatitis
  • Shingles
  • Skin cancer
  • Skin Tags
  • Spider veins
  • Squamous cell carcinoma
  • Stasis dermatitis
  • Sunburn
  • Tick bite
  • Tinea barbae
  • Tinea capitis
  • Tinea corporis
  • Tinea cruris
  • Tinea pedis
  • Tinea unguium
  • Tinea versicolor
  • Tinea
  • Tungiasis
  • Urticaria (Hives)
  • Vagabond's disease
  • Vitiligo
  • Warts
  • Wheal (aka "Weal" and "Welt")

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

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