समाजवाद की समालोचना

समाजवाद की समालोचना (या समाजवाद-विरोध या समाजवाद की आलोचना) में आर्थिक संगठन के समाजवादी मॉडल, उनकी व्यवहार्यता और साथ-साथ इस तरह की प्रणाली को अपनाने के राजनीतिक और सामाजिक दुष्प्रभावों का अध्ययन किया जाता है। कुछ समालोचनाएँ समाजवादी प्रणाली के बजाय समाजवादी आंदोलन, पार्टियों या मौजूदा समाजवादी देशों पर निशाना साधती हैं।

अधिकांश समालोचनाएँ एक विशिष्ट प्रकार के समाजवाद (नियोजित अर्थव्यवस्था) पर केंद्रित होती हैं। समाजवाद के किसी विशिष्ट मॉडल के आलोचक किसी अलग प्रकार के समाजवाद के पैरोकार हो सकते हैं।

कार्ल मार्क्स ने पैसे को पूँजीवादियों के द्वारा शोषण करने का एक औज़ार बताया था। ऑस्ट्रियाई स्कूल के अर्थशास्त्री लुडविग वॉन मीज़ेज़ (Ludwig von Mises) के अनुसार, यदि कोई आर्थिक प्रणाली पैसे का उपयोग नहीं करती है, उसके लिए वित्तीय गणना, बाजार में मूल्य निर्धारण करना, पूंजीगत वस्तुओं को प्रभावी ढंग से मूल्य देना और उत्पादन का समन्वय करना असम्भव होगा। इसलिए वास्तविक समाजवाद असंभव है, क्योंकि इसमें आर्थिक गणना करने के लिए आवश्यक जानकारी का अभाव है।[1] [2]

आर्थिक नियोजन पर आधारित समाजवादी व्यवस्थाओं के खिलाफ एक और केंद्रीय तर्क परिक्षेपित ज्ञान (dispersed knowledge) के उपयोग पर आधारित है। इस दृष्टि से इसलिए समाजवाद अक्षम्य है क्योंकि सारा ज्ञान एक केंद्रीय निकाय द्वारा एकत्र नहीं किया जा सकता है, और ज्ञान के अभाव में सरकार कभी भी पूर्णतः सही फ़ैसले नहीं ले सकती। अतः प्रभावी रूप से पूरी अर्थव्यवस्था के लिए एक योजना तैयार करने से का परिणाम यह होगा कि वस्तुओं के कभी भी सही मूल्य निर्धारित नहीं हो पाएँगे। इसे विकृत या अनुपस्थित मूल्य संकेतों की समस्या कहा जाता है।[3] अन्य अर्थशास्त्री आर्थिक संतुलन और पारेटो दक्षता की दोषपूर्ण और अवास्तविक धारणाओं पर अपनी निर्भरता के लिए नवशास्त्रीय अर्थशास्त्र पर आधारित समाजवाद के मॉडल की आलोचना करते हैं। [4]

कुछ दार्शनिकों ने समाजवाद के उद्देश्यों की भी आलोचना की है, यह तर्क देते हुए कि समानता व्यक्तिगत विविधताओँ को मिटा देती है और समाज में बराबरी लाने के लिए लोगों पर ज़बरदस्ती दबाव बनाना पड़ेगा।[5] समाजवादी राजनीतिक आंदोलन के आलोचक अक्सर समाजवादी आंदोलन के आंतरिक संघर्षों की आलोचना करते हैं जिससे ज़िम्मेदारी का अभाव पैदा होता है। 

आर्थिक उदारवादी और दक्षिण-उदारवादी उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व और बाजार-विनिमय को प्राकृतिक संस्थाएँ या नैतिक अधिकार के रूप में देखते हैं जो स्वतंत्रता की उनकी अवधारणाओं के अनुसार ज़रूरी हैं। वे पूंजीवाद की आर्थिक गतिशीलता को अपरिवर्तनीय और निरपेक्ष मानते हैं। नतीजतन, वे उत्पादन के साधनों पर राज्य के स्वामित्व , सहकारी समितियों और आर्थिक नियोजन को स्वतंत्रता के उल्लंघन के रूप में देखते हैं। [6] [7]

केंद्रीयकृत नियोजन की समालोचना

विकृत या अनुपस्थित मूल्य संकेत

लुडविग वॉन मीज़ेज़, समाजवाद के मुखर विरोधियों में से एक।

आर्थिक गणना समस्या केंद्रीय आर्थिक नियोजन की आलोचना है जो समाजवाद के कुछ रूपों में मौजूद है। यह पहली बार 1854 में प्रशिया के अर्थशास्त्री हरमन हेनरिक गोसेन द्वारा प्रस्तावित किया गया था। [8] [9] [10] इसे बाद में 1902 में डच अर्थशास्त्री निकोलास पियर्सन (Nicolaas Pierson), [11] [12] 1920 में लुडविग वॉन मीज़ेज़[2] और बाद में फ़्रीड्रिक हायक (Friedrich Hayek) ने निस्तारित किया। [13]

समस्या यह है कि अर्थव्यवस्था में संसाधनों को तर्कसंगत रूप से कैसे वितरित किया जाए। मुक्त बाजार (free market) मूल्य तंत्र (price mechanism) पर निर्भर करता है। इसमें संसाधनों का वितरण इस आधार पर किया जाता है कि लोग व्यक्तिगत रूप से विशिष्ट वस्तुओं या सेवाओं ख़रीदने के लिए कितने पैसे देने को तैयार हैं। मूल्य में संसाधनों की प्रचुरता के साथ-साथ उनकी वांछनीयता (आपूर्ति और मांग) के बारे में जानकारी समाहित होती है। इस जानकारी से व्यक्तिगत सहमति से लिए गए निर्णयों के आधार पर ऐसे सुधार किए जा सकते हैं जो कमी और अधिशेष बनने से रोकते हैं। मीज़ेज़ और हायक ने तर्क दिया कि क़ीमतें तय करने का यही एकमात्र संभव समाधान है। बाजार की कीमतों द्वारा प्रदान की गई जानकारी के बिना समाजवाद में तर्कसंगत रूप से संसाधनों को आवंटित करने के लिए कोई विधि नहीं है। जो लोग इस आलोचना से सहमत हैं, उनका तर्क है कि यह समाजवाद का खंडन है और यह दर्शाता है कि समाजवादी नियोजित अर्थव्यवस्था कभी काम नहीं कर सकती। 1920 और 1930 के दशक में इस पर बहस छिड़ गई और बहस के उस विशिष्ट दौर को आर्थिक इतिहासकारों ने "समाजवादी गणना बहस" के रूप में जाना। [14]

रिचर्ड एबेलिंग के अनुसार, "समाजवाद के खिलाफ मीज़ेज़ का तर्क यह है कि सरकार द्वारा केंद्रीय योजना प्रतिस्पर्धी रूप से गठित बाजार मूल्य को नष्ट कर देती है, जो समाज में लोगों के तर्कसंगत आर्थिक निर्णय लेने के लिए आवश्यक उपकरण है।[15][16]

अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन के अनुसार: "हानि वाला भाग उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि लाभ वाला भाग। एक सरकारी समाजवादी प्रणाली और निजी प्रणाली में बहुत बड़ा फ़र्क़ इसमें होता है कि हानि होने पर उनके द्वारा क्या किया जाता है। यदि किसी उद्यमी का प्रोजेक्ट काम नहीं करता है, तो वह उसे बंद कर देता है। किंतु यदि यह एक सरकारी परियोजना होती, तो इसका विस्तार किया गया होता, क्योंकि इसमें लाभ और हानि तत्व का अनुशासन नहीं है।"

अक्रम सिद्धान्त (chaos theory) के समर्थकों का तर्क है कि अर्थव्यवस्था जैसे अत्यधिक जटिल प्रणालियों के लिए सटीक दीर्घकालिक भविष्यवाणी करना असंभव है।[17]

लियोन ट्रॉट्स्की, विकेन्द्रीकृत आर्थिक नियोजन के एक कट्टर प्रस्तावक थे। उन्होंने तर्क दिया कि केंद्रीकृत आर्थिक नियोजन करना "लाखों लोगों के दैनिक अनुभव के बिना असम्भव होगा, अपने स्वयं के सामूहिक अनुभव की समीक्षा के बिना, उनकी आवश्यकताओं और मांगों की अभिव्यक्ति के बिना यह नहीं किया जा सकता है।" आधिकारिक प्रतिबंधों के दायरे के भीतर "अगर पोलित ब्यूरो में सात सार्वभौमिक जीनियस, सात मार्क्स या सात लेनिन भी होते, जो कि अपनी रचनात्मक कल्पना झोंक देते, तब भी यह 17 करोड़ लोगों की अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण जमा पाने में असमर्थ होगा"।[18]

आर्थिक लोकतंत्र और आत्म-प्रबंधन का दमन

कुछ वामपंथी भी केंद्रीय योजना की आलोचना करते हैं। स्वतंत्रतावादी समाजवादी अर्थशास्त्री रॉबिन हैहल का कहना है कि भले ही केंद्रीय नियोजन करके भले ही एक बार को प्रोत्साहन और नवाचार के अंतर्निहित अवरोधों पर काबू पा लिया जाए, फिर भी यह आर्थिक लोकतंत्र और आत्म-प्रबंधन को अधिकतम करने में असमर्थ होगा। उनके अनुसार आर्थिक लोकतंत्र और आत्म-प्रबंधन ऐसी अवधारणाएं हैं जो मुख्यधारा की आर्थिक स्वतंत्रता की धारणाओँ से अधिक सुसंगत हैं। [19]

सार्वजनिक उद्यम की आलोचना

धीमी या स्थिर तकनीकी प्रगति

मिल्टन फ्रीडमैन

नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन ने उस समाजवाद पर तर्क दिया, जिसे वे उत्पादन के साधनों पर सरकार के स्वामित्व के रूप में समझते थे। उनके अनुसार प्रतिस्पर्धा की कमी के कारण समाजवाद तकनीकी प्रगति को बाधित करता है। उन्होंने कहा कि "समाजवाद कहाँ विफल होता है, यह समझने के लिए हमें केवल संयुक्त राज्य अमेरिका की ओर देखने की आवश्यकता है" जहाँ "तकनीकी रूप से सबसे पिछड़े क्षेत्र वे हैं जहां सरकार उत्पादन का साधन है"।[6]

प्रोत्साहन की कमी

समाजवाद के आलोचकों ने तर्क दिया है कि किसी भी समाज में जहाँ हर कोई बराबर धन रखता है (जो कि उनका मानना है कि यह समाजवाद का परिणाम है), वहाँ काम करने के लिए कोई भौतिक प्रोत्साहन नहीं हो सकता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि किसी को अच्छी तरह से किए गए कार्य के लिए पुरस्कार नहीं मिलता है। वे आगे तर्क देते हैं कि प्रोत्साहन से सभी लोगों की उत्पादकता बढ़ती है, और इसके बिना ठहराव आ जाता है। समाजवाद के कुछ आलोचकों का तर्क है कि आय का बंटवारा करने से काम करने के लिए व्यक्तिगत प्रोत्साहन कम हो जाते हैं और इसलिए आय को अधिक से अधिक व्यक्तिगत ही किया जाना चाहिए। [20]

समृद्धि में कमी

अर्थशास्त्री हांस-हरमन हॉपे ने तर्क दिया कि जिन देशों में उत्पादन के साधन राष्ट्रीयकृत हैं, वे उन देशों जितने समृद्ध नहीं हैं, जहां उत्पादन के साधन निजी नियंत्रण में हैं ("समृद्ध" को जीडीपी के संदर्भ में परिभाषित किया गया है)। हालांकि, सभी समाजवादी राष्ट्रीयकरण नहीं चाहते हैं, कुछ इसके बजाय समाजीकरण को प्राथमिकता देते हैं।

मीज़ेज़ ने तर्क दिया है कि राज्य के हस्तक्षेप के माध्यम से अधिक समान आय को लक्ष्य बनाने से राष्ट्रीय आय में कमी आती है और इसलिए औसत आय भी कम होती है। नतीजतन, समाजवादी इस धारणा पर आय के अधिक समान वितरण का उद्देश्य चुनता है कि एक गरीब व्यक्ति के लिए आय की सीमान्त उपयोगिता (marginal utility) एक अमीर व्यक्ति की तुलना में अधिक है। मीज़ेज़ के अनुसार, समाजवादी एक उच्च औसत आय पर आय की असमानता के बजाय कम औसत आय को बेहतर मानते हैं। उन्हें इस प्राथमिकता के लिए कोई तर्कसंगत औचित्य नहीं देखता है। मीज़ेज़ यह भी कहते हैं कि इस बात का भी बहुत कम सबूत हैं कि अधिक आय समानता का उद्देश्य हासिल करने में सफलता प्राप्त हुई हो। [21]

कई आलोचकों ने सोवियत संघ की विफलताओं के आधार पर समाजवाद की आलोचना की है। मीज़ेज़ के अनुसार: "सोवियत शासन के तहत रूसी मामलों के बारे में एकमात्र निश्चित तथ्य जिससे सभी लोग सहमत हैं- यह है कि रूसी जनता का जीवन स्तर में अमेरिका की तुलना में बहुत कम है, जिसे पूंजीवाद का गढ़ माना जाता है। अगर हम सोवियत शासन को एक प्रयोग के रूप में देखें, तो हमें यह कहना होगा कि इस प्रयोग ने स्पष्ट रूप से पूंजीवाद की श्रेष्ठता और समाजवाद की हीनता को प्रदर्शित किया है।[22]

सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव

फ़्रीड्रिक हायक

अपनी पुस्तक द रोड टू सर्फ़डोम में, नोबेल पुरस्कार विजेता फ़्रीड्रिक हायक ने तर्क दिया है कि उत्पादन के साधनों के राष्ट्रीयकरण के माध्यम से धन का समान वितरण राजनीतिक, आर्थिक और मानव अधिकारों की हानि के बिना प्राप्त नहीं किया जा सकता है। उन्होंने तर्क दिया कि ज़बरदस्ती महत्वपूर्ण शक्तियों का अधिग्रहण किए बिना धन के उत्पादन और वितरण के साधनों पर नियंत्रण प्राप्त कर पाना समाजवादियों के लिए असम्भव है। हायेक ने तर्क दिया कि समाजवाद की राह समाज को तानाशाही की ओर ले जाती है। वे कहते हैं कि इटली और जर्मनी में फासीवाद और नाजीवाद समाजवादी प्रवृत्तियों का अनिवार्य परिणाम था। इस प्रकार, वे कहते हैं कि पूँजीवाद से समाजवाद की ओर जाना देखने में तो लेफ़्ट होता है, लेकिन वास्तव में राइट (पूंजीवाद से फासीवाद की ओर) होता है। इन विचारों को " घोड़े की नाल सिद्धांत " में समझाया गया है।

इसी तरह का तर्क दिनेश डिसूज़ा जैसे आलोचकों ने भी दिया है, क्योंकि उनका मानना है कि जर्मन नाजी पार्टी का पूरा जर्मन नाम Nationalsozialistische Deutsche Arbeiterpartei (राष्ट्रीय समाजवादी जर्मन कामगार पार्टी) था, और चूँकि "Nationalsozialistische" का अनुवाद "राष्ट्रीय समाजवाद" है, यह वास्तव में फ़ासीवाद का ही एक प्रकार है।[23]

बाज़ार-समाजवादी पीटर सेल्फ़ (Peter Self) भी समाजवादी केंद्रीयकृत अर्थव्यवस्था की भर्त्सना करते हुए तर्क देते हैं कि बराबरी लाने की कोशिश एक हद तक ही करना चाहिए, अथवा ज़ोर-ज़बरदस्ती करके व्यक्तिगत इच्छाओं का दमन होना निश्चित है।[5]

राजगोपालाचारी का मत

गांधीजी के साथ चक्रवर्ती राजगोपालाचारी

अपने लघु निबन्ध "हमारा लोकतंत्र" में भारत के वरिष्ठ नेता चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने कांग्रेस के विरुद्ध एक दक्षिणपन्थी विकल्प की आवश्यकता ज़ाहिर करते हुए कहा-

चूँकि... कांग्रेस वामपंथ की ओर झुक गई है, ज़रूरत एक अति-वामपंथी या बहिर्वामपंथी गुट [जैसे CPI या प्रजा समाजवादी पार्टी, PSP] की नहीं, बल्कि एक शक्तिशाली और स्पष्ट दक्षिणपंथ की है[24]

उन्होंने यह भी कहा कि विपक्ष को:

पार्टी मीटिंग के बंद दरवाज़ों के पीछे छिपकर नहीं, बल्कि खुलकर और समय-समय पर काम न मतदाताओं के समक्ष कार्य करना चाहिए।[24]

स्वतंत्र पार्टी की स्थापना करते हुए उन्होंने मूल दस्तावेज़ में २१ मूल सिद्धांत दिए।[25] इस पार्टी का लक्ष्य समानता हासिल करना तो था, किंतु यह निजी क्षेत्र पर सरकारी नियंत्रण का विरोध करती थी।[26][27]

राजगोपालचरी ने अफ़सरशाही को जमकर लताड़ा। नेहरू की अनुमतियों और लाइसेंसों की जटिल प्रणाली, जो निजी उद्यम के विकास के मार्ग में बाधा बनती थी, उसके लिए उन्होंने "लाइसेंस-पर्मिट राज" शब्द गढ़ा।[24]

नेतृत्व के भ्रष्टाचार के दावे

समाजवाद के कुछ आलोचक समाजवाद को एक प्रकार के राजनीतिक राज्य संगठन के रूप में देखते हैं जो सामाजिक आर्थिक संरचना का एक प्रकार है। ये विचारक आम तौर पर "समाजवाद" के बजाय "समाजवादी राज्यों" की आलोचना करते हैं।

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संदर्भ

अग्रिम पठन

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