अहुरा मज़्दा

अहुर मज़्दा जिनको संस्कृत में असुर महत[1][2][3] कहलाता है अवस्ताई भाषा में प्राचीन ईरानी पंथ के एक देवता का नाम है जिन्हें पारसी पंथ के संस्थापक ज़रथुश्त्र ने अजन्मा और सर्वज्ञ परमेश्वर बताया था। इसके अलावा इनके लिए ओह्रमज़्द, होउरमज़्द, हुरमुज़, अरमज़्द और अज़्ज़न्दारा नाम भी प्रयोग किये जाते हैं। वे पारसी पंथ के सर्वोच्च देवता हैं और यस्न (पारसी पूजा विधि है) में इन्हें सर्वप्रथम और सर्वाधिक सम्बोधित किया जाता है। ऋग्वेद २: १: ६ में, उन्हें असुर महत के रूप में वर्णित किया गया है।[1][3][2] अहुर मज़्दा को प्रकाश और अच्छाई उनके ख़िलाफ़ शैतानी दाएवों का अध्यक्ष है अंगिरा मैन्यु।देव गणों की पूजा का उल्लेख १५वी शताब्दी ईसा पूर्व में ईरान से लेकर सीरिया और तुर्की में पाया जाता है। इन अभिलेखों में भारत से इन देवताओं के आने का उल्लेख है। इससे पता चलता है कि अगले हजार साल में दक्षिणी इरान में कुछ लोग देवो के बदले असुर को पूजने लगे। पारसी पंथ शुरुआत ५वी शताब्दी से मानता है।आदिम हिन्द-ईरानी लोगों के पंथ में संसार और ब्रह्माण्ड में अच्छाई और सही व्यवस्था के महत्त्व पर ज़ोर था। जब भारतीय आर्य और ईरानी लोगों का विभाजन हुआ तो इस सही व्यवस्था के लिए संस्कृत में शब्द 'ऋत' बना और ईरानी भाषाओँ में इसका सजातीय 'अर्ता' (ارته) बना, जिसका एक अन्य रूप 'अशा' है। ध्यान दीजिये कि क्योंकि अंग्रेज़ी भी हिन्द-यूरोपीय भाषा परिवार की सदस्य है इसलिए उसमें भी सही के लिए इस से मिलता-जुलता शब्द है। इसके विपरीत जाने वाली क्रिया को संस्कृत में 'द्रुह' और फ़ारसी में 'द्रुज' कहा गया, यानि 'झूठा' या 'बुरा'। पारसी धर्म में अहुर मज़्दा अर्ता के लिए और द्रुज के खिलाफ़ हैं जबकि अंगिरा मैन्यु उस से विपरीत है।[4]

ईरान के बीसतुन शिलालेख में अहुर माज़्दा का कई बार वर्णन है
ताक़-ए-बोस्तान की शिलाओं पर - बाएँ पर मित्र (देवता), दाएँ में अहुर माज़्दा और बीच में सासानी सम्राट शापूर द्वितीय राज्यभार ग्रहण करते हुए

परिचय

अहुरमज्द प्राचीन ईरान के पैगंबर ज़रथुस्त्र की ईश्वर (अहु=स्वामी, मज्द=परम ज्ञान) को प्रदत्त संज्ञा। सर्वद्रष्टा, सर्वशक्तिमान्‌, सृष्टि के एक कर्ता, पालक एवं सर्वोपरि तथा अद्वितीय, जिसे वंचना छू नहीं सकती और जो निष्कलंक है। पैगंबर की 'गाथाओं' अथवा स्तोत्रों में ईश्वर की प्राचीनतम, महत्तम एवं अत्यंत पवित्र भावना का समावेश मिलता है और उसमें प्राकृतिक शक्ति (स्थ्रोंपॉमर्फिक) पूजा का सर्वथा अभाव है जो प्राचीन आर्य और सामी देवताओं की विशेषता थी। धार्मिक नियमों में जिनका पालन करना प्रत्येक ज़रथुस्त्र मतावलंबी का कर्तव्य माना जाता है; उसे इस प्रकार कहना पड़ता है-मैं अहुरमज्द के दर्शन में आस्था रखता हूँ... मैं असत देवताओं की प्रभुता तथा उनमें विश्वास रखनेवालों की अवहेलना करता हूँ।

इस प्रकार प्रत्येक नवमतानुयायी प्रकाश का सैनिक होता है जिसका पुनीत कर्तव्य अंधकार और वासना की शक्तियों से धर्मसंस्थान के लिए लड़ना है।

ऐ मज्द! जब मैंने तुम्हारा प्रथम साक्षात पाया, इस प्रकार पैगंबर ने एक सुप्रसिद्ध पद में कहा है, मैंने तुम्हें केवल विश्व के आदि कर्ता के रूप में अभिव्यक्त पाया ओर तुमको ही विवेक का स्रष्टा (श्रेष्ठ, मिन्‌) एवं सद्धर्म का वास्तविक सर्जक तथा मानव जाति के समस्त कर्मों का नियामक समझा।

अहुरमज्द का साक्षात्‌ केवल ध्यान का विषय है। पैगंबर ने इसी लिए ऐसी उपमाओं और रूपकों का आश्रय लेकर ईश्वर के विषय में समझाने का प्रयास किया है, जिनके द्वारा अनंत की कल्पना साधारण मनुष्य की समझ में आ पाए। वह ईश्वर से स्वयं वाणी में प्रकट होकर उपदेश करने के लिए अराधना करता है और इस बात का निर्देश करता है कि अपने चक्षुओं से सभी व्यक्त एवं अव्यक्त वस्तुओं को देखता है। इस प्रकार की अभिव्यंजनाएँ प्रतीकात्मक ही कही जाएँगी।

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

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