एवेंक लोग

एवेंक लोग (रूसी: Эвенки, एवेंकी; मंगोल: Хамниган, ख़ामनिगन; अंग्रेजी: Evenk) पूर्वोत्तरी एशिया के साइबेरिया, मंचूरिया और मंगोलिया क्षेत्रों में बसने वाली एक तुन्गुसी जाति का नाम है। रूस के साइबेरिया इलाक़े में सन् २००२ में ३५,५२७ एवेंकी थे और यह औपचारिक रूप से 'उत्तरी रूस की मूल जनजाति' की सूची में शामिल थे।[1] चीन में एवेंकियों को चीन की ५६ जातियों की सूची में भी शामिल किया गया था और उस देश में सन् २००२ की जनगणना में इनकी जनसंख्या ३०,५०५ थी।[2] मंगोलिया में इन्हें ख़ामनिगन कहा जाता है और वहाँ की सन् २०१० की जनगणना में इनकी संख्या सिर्फ़ ५३५ थी और वे भी अपनी मूल एवेंकी भाषा छोड़कर मंगोल भाषा अपने चुके थे।

सन् १९०० के आसपास साइबेरिया में खींची गई कुछ एवेंकियों की तस्वीर
एक पारम्परिक एवेंक ओझा (जो पुजारी और हक़ीम दोनों का स्थान रखता था) की पोशाक

इतिहास

एवेंकी लोगों का मूल निवास स्थान साइबेरिया में बईकाल झील और अमूर नदी के बीच का इलाक़ा है। एवेंकी भाषा तुन्गुसी भाषा-परिवार की उत्तरी उपशाखा की एक बोली है और साइबेरिया में बोली जाने वाली एवेन भाषा और नेगिदाल भाषा से काफ़ी मिलती-जुलती है। १६०० ईसवी तक साइबेरिया के एवेंकियों ने रेनडियर (उत्तरी बर्फ़ीले इलाक़ों में मिलने वाली हिरणों की एक नस्ल) का पालन शुरू कर दिया था। मंगोलिया के एवेंकियों ने मंगोल लोगों से घोड़ों का पालन और प्रयोग सीख लिया था। १७वीं सदी में पश्चिम से रूसी साम्राज्य पूर्वी दिशा में पूरे साइबेरिया में तेज़ी से फैलने लगा और जल्दी ही एवेंकियों के क्षेत्र में दाख़िल हो गया। रूसियों ने अपने पारंपरिक कोसाक जाति के फ़ौजी यहाँ भेजें और एवेंकियों को रूसी सरकार को लगान देने पर मजबूर किया। कुछ एवेंकियों ने रूस के ख़िलाफ़ विद्रोह किया और रूसी सैनिकों ने कुछ एवेंकी परिवारों का अपहरण भी किया। धीरे-धीरे एवेंकी रूसी व्यवस्था का हिस्सा बन गए। कुछ एवेंकी भागकर साख़ालिन द्वीप, मंगोलिया और मंचूरिया में बस गए जहाँ उनके वंशज अभी भी रहते हैं।

धर्म

पारम्परिक रूप से एवेंक लोग प्रकृति पूजा में विश्वास रखते थे, जिसे सर्वात्मवाद या 'ऐनीमिज़म' (animism) कहा जाता है। इसके तहत समाज में ओझा का एक अहम किरदार होता था - वह पंडित-पुजारी भी था और जड़ी-बूटियों का ज्ञान रखने वाला वैद्य भी। यह ओझा पुरुष या स्त्री दोनों में से कोई भी हो सकता था। उसके पास रेनडियर की खाल से बनी एक डफ़ली होती थी जिसका प्रयोग वह 'कमलन' नाम के पूजा समारोह में करता था। इसमें वह डफ़ली बजाकर मददगार आत्माओं-देवताओं को संबोधित करता था और उनसे जानवरों को ढूँढने की या किसी बीमार या ज़ख़्मी व्यक्ति को भला करने की सहायता मांगता था।[3] मंगोल प्रभाव से बहुतों ने तिब्बती लहजे का बौद्ध धर्म अपना लिया। बाद में रूसी प्रभाव से कुछ ने इसाई धर्म भी अपना लिया है।

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

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