खुरदार

खुरदार या अंग्युलेट (ungulate) ऐसे स्तनधारी जानवरों को कहा जाता है जो चलते समय अपना भार अपने पाऊँ की उँगलियों के अंतिम भागों पर उठाते हैं। यह भार सहन करने के लिए ऐसे पशुओं के पाऊँ अक्सर खुरों के रूप में होते हैं।[1] स्तनधारियों के बहुत से गण खुरदार होते हैं। बहुत से जाने-पहचाने प्राणी इस श्रेणी में आते हैं, जिसमें घोड़ा, गधा, ज़ेब्रा, गाय, गेंडा, ऊँट, दरियाई घोड़ा, सूअर, बकरी, तापीर, हिरन, जिराफ़, ओकापी, साइगा और रेनडियर शामिल हैं।

लामा एक खुरदार जानवर है, जो आर्टियोडैकटिला (सम-ऊँगली खुरदार) श्रेणी में आता है - लामाओं के खुरों में दो उंगलियाँ होती हैं

किसी ज़माने में 'खुरदार' टैक्सोन (जीव जातियों का समूह) एक क्लेड माना जाता था, यानि यह समझा जाता था कि खुर किसी एक जाति में क्रम-विकास (एवोल्यूशन) से उत्पन्न हुए और उस जाति से आगे उत्पन्न हर वंशज जाति खुरदार है। वर्तमानकाल में इस विचार को लेकर जीववैज्ञानिकों में मतभेद है और बहुत से विद्वानों के अनुसार भिन्न खुरदार जातियाँ एक-दूसरे से उतनी अनुवांशिक (जेनेटिक) गहराई से सम्बंधित नहीं हैं जितना पहले समझा जाता था। अधिकतर खुरदारी शाकाहारी होते हैं। ध्यान दें कि शरीरों और अनुवांशिकी की जाँच से कुछ पानी में विचारने वाले जानवरों को भी खुरदार की श्रेणी में डाला जाता है हालाँकि कड़ी नज़र से देखा जाए तो इनके खुर नहीं होते।

उपश्रेणियाँ

शुरू में वैज्ञानिक सभी खुरदारों को एक ही जीववैज्ञानिक गण का हिस्सा मानते थे, लेकिन अब इन्हें कई अलग श्रेणियों में विभाजित किया जाता है:

  • पेरिसोडैकटिला या विषम-ऊँगली खुरदार (Perissodactyla या odd-toed ungulates) - इनके खुरों में उँगलियों की संख्या विषम अंक (even) होती है
  • आर्टियोडैकटिला या सम-ऊँगली खुरदार (Artiodactyla या even-toed ungulates) - इनके खुरों में उँगलियों की संख्या सम अंक (even) होती है
  • ट्युबुलिडेंटाटा या आर्डवार्क (Tubulidentata या aardvarks) - इसकी कई नस्लें हुआ करती थीं लेकिन आर्डवार्क के सिवा सभी विलुप्त हो चुकी हैं
  • हायराकोइडीया या हायरैक्स (Hyracoidea या hyraxes) - यह छोटे आकार की जातियाँ अफ़्रीका और मध्य पूर्व में ही मिलती हैं
  • सायरीनिया या डूगोंग व मैनाटी (Sirenia या dugongs and manatees) - यह बड़े आकार के नदियों और तटीय समुद्री इलाकों में रहने वाले जानवर हैं
  • प्रोबोसिडीया या हाथी (Proboscidea या elephants) - आधुनिक हाथियों के अलावा इस श्रेणी में विलुप्त हुई मैमथ और मैस्टोडॉन जातियाँ भी शामिल थीं

वर्गीकरण

खुरीय (Ungulata) नालोत्पन्न स्तनपोषियों का एक बड़ा वर्ग है, जिसके अंतर्गत खुरवाले शाकाहारी चौपाए आते है। नवयुग के पश्चात् ई. वॉटन् (E. Wotton) (१५५२) ने जरायुज चौपायों को बहुपादांगुलीय, खुरीय एवं सुमवालों में विभाजित किया। १६९३ में जॉन रे ने इन चौपायों को दो बड़े वर्गों, खुरीय (Ungulata) और नखरिण (Unguiculata) में विभक्त किया। रे के पश्चात् कुछ लुप्त एवं कुछ बाद में पता लगे हुए वर्ग भी खुरीय के अंतर्गत समाविष्ट कर लिए गए। ऑस्बार्न के स्तनपोषियों का युग नामक ग्रंथ में खुरीयों के गणों का उल्लेख मिलता है। अधिकांश खुरीयों के पैर पतले एवं दौड़ने में समर्थ होते हैं तथा उनका शरीर पृथ्वी से पर्याप्त ऊँचा रहता है। वे खुरों के बल चलते हैं। इनके अगले, पिछले पैरों के ऊपरी भाग धड़ से इतने सटे रहते हैं कि दिखलाई नहीं पड़ते।

सामान्यता खुरीय पशु खुले भूभाग में रहने के अभ्यस्त होते हैं। जहाँ वे घास-पात पर जीते हैं। इनके बहुत से गण विलुप्त हो चुके हैं। जीवित गणों का वितरण निम्नलिखित है:

विषमांगुल गण (Perissodactyla)

इस वर्ग के पशुओं में अगले और पिछले पैरों के मध्यांगुल मुख्य हैं जिनपर शरीर का अधिकांश भार रहता है। तीसरा अंगुल ही अवयव का केंद्रवर्ती भाग है। इनके दाँत सामान्यता कूटदंत होते हैं। वर्तमान विषमांगुल तीन वंशों में विभक्त किए गए हैं।

  • (क) अश्व वंश (घोड़ा, गधा तथा चित्रगर्दभ)- इस वंश के पशुओं की मुख्य विशेषता यह है कि इनके प्रत्येक पैर में केवल एक ही अंगुल (अर्थात् तीसरा अंगुल) कार्यशील होता है। दूसरे और चौथे अंगुल के अवशेषमात्र ही रह गए हैं, जिन्हें भग्नास्थिबंध (Splint bones) कहते हैं। इनके पश्चहानव्यो (molars) की रचना बड़ी जटिल होती है। वे उनके जीवनकाल में बराबर घिसते रहते हैं तथा उनके विघर्षण की मात्रा से पशुओं की आयु का पता लगाया जा सकता हैं।
  • (ख) लुलापवंश (जलतुरग, Tapir) - इनकी मुख्य विशेषताएँ हैं मझोला आकार एवं नाक तथा उत्तरोष्ठ के आगे बढ़ जाने से बनी हुई सूँड की सी आकृति। इनके अगले पैरों में चार चार तथा पिछले में तीन तीन अंगुल होते हैं। जलतुरग केवल दक्षिणी एवं मध्य अमरीका तथा मलाया प्रायद्वीप में पाए जाते हैं।
  • (ग) गंडक वंश (गैंडा)- इस वर्ग में कुछ विशालकाय पशुजातियाँ समाविष्ट हैं। इनका वैशिष्ट्य नाक के मध्य में स्थित एक या दो सींगों से सूचित होता है; किंतु वे वास्तव में सींग नहीं हैं, क्योंकि वे नासिका की ऊपरी अस्थियों से जुड़े हुए बाल जैसे रेशों के समूह हैं। इनके अगले पैरों में सामान्यता तीन, या कभी कभी चार तक, अंगुल होते हैं, किंतु तीसरा अंगुल ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है। पिछले पैरों में सर्वदा तीन ही अंगुल होते हैं। उत्तरोष्ठ लंबा होने के साथ साथ परिग्राही भी होता हैं, किंतु जलतुरगों के समान सूँड का आकार धारण नहीं करता। त्वचा बहुत मोटी होती है और उसपर बाल बहुत छिदरे होते हैं। गैंडे बहुत भयंकर और दुर्दम्य होते हैं तथा शत्रु पर बड़े क्रोध एवं अप्रतिहत वेग से आक्रमण करते हैं। वे भारत तथा अफ्रीका में पाए जाते हैं।

समांगुल गण (Artiodactyla)

इस गण में सूअर, जलहस्ती, पोत्री (Peccaries), ऊँट, मृग, मूस, (Moose, उत्तरी अमरीका का हिरन), ऋष्य (Elk), महाग्रीव (जिराफ, Giraffe), शूलशृंग (Prong horn), चौपाए, भैंस और भैंसे, वृषहरिण (Gnus), हरिण, कुरंग (Gazelle), चमरी (Yak), भेंड़, रंकु (Ibex), बकरे और बकरियाँ तथा अन्य बहुत से अख्यात प्रकार के पशु आते हैं। ये साधारणतया केवल स्थलचर प्राणी हैं, यद्यपि इनमें से कुछ अर्धजलचर भी होते हैं। ये अर्धजलचर प्राणी अधिकांश शीघ्रगामी होते हैं, परंतु इतने भारी शरीर के होते हैं कि इनके पैर अधिक शीघ्रता से नहीं उठते। इनके दो या चार अंगुलों में खुर होते हैं। शुद्ध शकाहारी होने के कारण इनके उदर में कई विभाग मिलते हैं।

वर्ग १० शूकर (सूअर)

इस वर्ग में तीन वंश उपलब्ध हैं। वे क्रमश: इस प्रकार हैं : जलहस्ती (Hippopotamus), सूअर तथा पोत्री। जलहस्ती विशाल एवं भारी शरीरवाले होते हैं। इनके हरेक अगले पैरों की तुलना में पिछले पैर बड़े होने के कारण इसकी पीठ आगे की ओर झुकी होती है। यह रोमंथी दक्षिणी अमरीका का निवासी है।

पैर में चार चार खुर होते हैं। ये अफ्रीका में पाए जाते हैं। छोटे आकार के जलहस्ती साइबीरिया में मिलते हैं। शूकर वंश में यूरोप के जंगली सूअर, कीलयुक्त चर्मवाले तथा अन्य कई प्रकार के सूअर हैं। पोत्री सूअर जैसे द्रुतगामी प्राणी है, जो सदैव बड़े बड़े समूहों में रहते हैं। इस कारण ये इतने भयंकर होते हैं कि उनका सामना नहीं किया जा सकता।

वर्ग २० रोमंथिन (Ruminantia)

ये खुरीय पशु जुगाली करनेवाले कहे जाते हैं, क्योंकि ये अपने भोज्य पदार्थ को पहले तो बिना चबाए ही निगल जाते हैं, फिर उसमें से थोड़ा थोड़ा मुँह में लाकर चबाते हैं। ये पशु तीन महागणों से विभाजित हैं।

  • मुंडि महागण, यथा मातृका मृग
  • उष्ट्र महागण, यथा ऊँट एवं विकूट (Llama)
  • प्ररोमंथि महागण, जैसे मृग, हरिण, वृषभ, महाग्रीव, अज तथा अवि।

मातृका मृग रोमंथियों में सबसें आद्य है। ऊँट रोमंथियों का एक छोटा समूह है। यह एशिया और अफ्रीका के मरुस्थल मात्र में सीमित है। इसकी दो विशेषताएँ प्रसिद्ध हैं-यह जल के बिना लंबे समय तक रह सकता है एवं भोजन के अभाव में अपने कूबड़ के चर्बीयुक्त अंश से निर्वाह कर लेता है। इन्हीं दोनों विशेषताओं से यह अपना जीवन मरुभूमि में सुचारु रूप से व्यतीत कर सकता है। अतएव यह एशिया तथा अफ्रीका के लंबे मरुमार्गों के लिए नितांत उपयुक्त भारवाहक सिद्ध हुआ है। इसलिये इसे मरुस्थल का जहाज भी कहा गया है। विकूटों में भी ऊँटों जैसे गुण हैं। ये दक्षिण अमरीका के प्राणी हैं।

प्ररोमंथि महागण में -

  • (१) मृग वंश अति विशाल है। इसमें ऋष्यहरिण इत्यादि पूर्ण परिचित जीव हैं। सींगों की शाखाओं का नरों में होना इनकी विशेषता है, परंतु वाहमृग (Reindeer) में यह नर और मादा दोनों में पाई जाती है। ये शृंगशाखाएँ विभिन्न प्रकार की होती हैं। किसी में छोटे तथा बिना शाखाओं के शृंग होते हैं, जैसे क्षुद्र मृग में, तथा कुछ में बहुशाखोपशाखायुक्त विशाल शृंग होते हैं, जैसे ऋष्य में। परंतु ये सभी शृंग ठोस अस्थियों से निर्मित होते हैं। अमरीका के ऋष्य मृगवंश के राजा कहे जाते हैं, क्योंकि ये विशालकाय होते हैं। वाह मृग उत्तर के परध्रुिवीय प्रदेशों में मिलते हैं। कस्तुरी मृग अपवाद-स्वरूप है। इनके सींग नहीं होते, किंतु हाथी के दाँत सरीखे दो लंबे, नुकीले उद्दंत होते हैं, जो आहार के लिये कंद मूलों को उखाड़ने में प्रयुक्त होते हैं।
  • (२) महाग्रीव वंश रोमंथियों का एक लघु परंतु विशिष्ट समूह है। अधिक ऊँचाई, लंबी गर्दन और पतले पैर इनकी विशेषताएँ हैं। इनके सींग विशेष प्रकार के होते हैं। ये ललाटास्थि से निकलते हैं तथा बालों और चमड़ी से परिपूर्ण होते हैं। यह जीव अफ्रीकावासी हैं। यहाँ पर इसी वंश का एक छोटे आकार का पशु प्रग्रीव (Okapi) मिलता है, जो कुछ कुछ हरिण सा प्रतीत होता है।
  • (३) ढोर वंश रोमंथियों का विशाल वंश है। इसमें बैल, भैंसा, भेड़ एवं बकरी इत्यादि सम्मिलित हैं। इनके सींगों की अपनी विशेषता है। ये खोखले, बिना हड्डी के एवं शृंगि (Keratine) के निर्मित होते हैं तथा नर एवं मादा दोनों में ही पाए जाते हैं। इस वंश के अधिकांश पशु पालतू हैं।

प्रशश गण

इस गण में आद्य खुरीयों की एक ही जीवित प्रजाति है जिसे प्रशश (Cony) कहते हैं। यह कृतंक जैसे प्रतीत होते हैं, क्योंकि इनके बंटाखु सरीखे छोटे कान तथा छोटी पूँछ होती है और इनके कर्तनदंत स्थायी मज्जा (Pulp) से निकलते रहते हैं। अपनी कुछ विशेषताओं के कारण ये आद्य खुरीयों में सम्मिलित हैं। इनमें कुछ तो चट्टानों पर रहते हैं और कुछ अंशत: वृक्षवासी भी होते हैं। इनके अगले पैरों में चार और पिछले पैरों में तीन खुर होते हैं।

शुंडि गण (हाथी)

इस गण में विशाल आकृति के अत्यंत विशिष्ट स्थलचर स्तनपोषी हैं। इनकी विशेषताएँ ये हैं : नासिका एवं उत्तरोष्ठ से निकली हुई लंबी सूँड, उत्तर हनु के दो कर्तनदंत बाहर की ओर हाथी दाँत के रूप में निकले हुए और पश्चहानव्य नितांत कूटदंत होते हैं। इनकी करोटि की अस्थियों में बड़े बड़े वायुकूप होते हैं और ये बहुत मोटी होती है। हाथी की दो जीवित प्रजातियाँ हैं, प्रथम भारतीय (Elephas indicus) तथा द्वितीय, कालद्वीपीय (E. africanus)। कालद्वीपीय हस्ती विशालतरकाय तथा बड़े कानोंवाला होता हैं। भारतीय हाथी भारवाहन में अतिप्रयुक्त है। इसकी आयु २०० वर्ष तक की होती है।

समुद्र गो (Sea cow) गण (हस्ती, मकर एवं कटिमकर)

यह प्रारंभिक खुरीय संजाति की एक जलीय शाखा मानी जाती है, जो शुंडिगण से दूरतया संबद्ध है। यह बड़े, लगभग बिना बालों के, स्तनपोषी हैं। इनके पश्चपाद नहीं होते तथा इनकी पूँछ चपटी पुच्छपक्ष के रूप में होती हैं। इनका उदर अन्य खुरीयों के समान होती है। ये सामुद्रिक वनस्पतियों पर ही निर्वाह करते हैं।

समान पूर्वज से आरम्भ करके खुरीय प्राणियों का विकास-क्रम

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

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