बाकू आतेशगाह
बाकू आतेशगाह या ज्वाला मंदिर (अज़ेरी: Bakı Atəşgahı) अज़रबेजान की राजधानी बाकू के पास के सुराख़ानी शहर में स्थित एक मध्यकालीन हिन्दू धार्मिक स्थल है। इसमें एक पंचभुजा (पेंटागोन) अकार के अहाते के बीच में एक मंदिर है। बाहरी दीवारों के साथ कमरे बने हुए हैं जिनमें कभी उपासक रहा करते थे। बाकू आतेशगाह का निर्माण १७वीं और १८वीं शताब्दियों में हुआ था और १८८३ के बाद इसका इस्तेमाल तब बंद हो गया जब इसके इर्द-गिर्द ज़मीन से पेट्रोल और प्राकृतिक गैस निकालने का काम शुरू किया गया। १९७५ में इसे एक संग्राहलय बना दिया गया और अब इसे देखने हर वर्ष १५,००० सैलानी आते हैं। २००७ में अज़रबेजान के राष्ट्रपति के आदेश से इसे एक राष्ट्रीय ऐतिहासिक-वास्तुशिल्पीय आरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया।[1]
शब्दोत्पत्ति
फ़ारसी में 'आतिश' (آتش) का अर्थ 'आग' होता है और इसे ईरानी लहजे में 'आतेश' उच्चारित करते हैं। यह हिन्दी में भी 'आतिशबाज़ी' जैसे शब्दों में मिलता है। 'गाह' (گاه) शब्द का अर्थ 'सिंहासन', 'बिस्तर' या 'घर' होता है, जैसे की 'ईदगाह', 'ख़्वाबगाह' (सोने का कमरा), 'बंदरगाह', इत्यादि। 'आतिशगाह' का मतलब 'आग का घर या सिंहासन' है।
विवरण
सुराख़ानी शहर अज़रबेजान के आबशेरोन प्रायद्वीप पर स्थित है जो कैस्पियन सागर से लगता है। यहाँ की ज़मीन से तेल रिसता रहता है और स्वयं ही कुछ स्थानों पर स्वयं ही आग भड़क जाती है। इस कारण से यह आग को पवित्र मानने वाले पारसी धर्म के अनुयायियों के लिए सदियों से धर्म-भूमि रही है।
हिन्दू स्थल
कुछ विद्वानों का सोचना है कि यह सम्भव है कि ईरान पर इस्लामी क़ब्ज़े से पहले इस जगह पर एक पारसी मंदिर रहा हो। एक लेखक ने कहा है कि "ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार, १७वीं सदी के अंत में सुराख़ानी में भारतीय आतिशगाह बनने से पहले स्थानीय लोग भी इस 'सात छिद्रों कि जलती ज्वालाओं' के स्थान पर पूजा किया करते थे"। अग्नि को हिन्द-ईरानी की हिन्दू वैदिक धर्म और पारसी धर्म की दोनों शाखाओं में पवित्र माना जाता है - हिन्दू लोग इसे 'अग्नि' कहते हैं और पारसी लोग इसके लिए 'आतर' सजातीय शब्द प्रयोग करते हैं।[2][3] इस कारणवश विवाद रहा है कि आतेशगाह एक हिन्दू मंदिर है या पारसी आतिशकदा। मंदिर के ऊपर चढ़ा त्रिशूल वैसे तो हिन्दू धर्म कि निशानी होती है[4] और पारसी विद्वानों ने इसकी जांच करके इसे एक हिन्दू स्थल बताया है,[5][6] लेकिन एक अज़ेरी पेशकश के अनुसार यह संभवतः पारसी धर्म के तीन 'अच्छे विचार, अच्छे बोल, अच्छे कर्म' गुणों का प्रतीक भी हो सकता है।[7]
जोनस हैनवे (१७१२-१७८६) नामक एक १८वीं सदी के यूरोपीय समीक्षक ने पारसियों और हिन्दुओं को एक ही श्रेणी का बताते हुए कहा कि 'यह मत बहुत ही कम बदलाव के साथ प्राचीन भारतीयों और ईरानियों में, जिन्हें गेबेर या गौर कहते हैं, चले आ रहे हैं और वे अपने पूर्वजों के धर्म कि रक्षा में बहुत अग्रसर रहते हैं, विशेषकर अग्नि की मान्यता बनाए रखने में'। 'गेबेर' पारसियों के लिए एक फ़ारसी शब्द है जबकि गौड़ हिन्दू ब्राह्मणों की एक जाति होती है। उसके बाद आने वाले एक विख्यात विद्वान, ए॰ वी॰ विलयम्ज़ जैकसन ने इन दोनों समुदायों को भिन्न बताते हुए आतेशगाह के अनुयायियों की वेशभूषा, तिलकों, शाकाहारी भोजन और गौ पूजन के वर्णन के बारे में कहा कि 'हैनवे जिन चीज़ों की बात कर रहे थे वे स्पष्ट रूप से भारतीय हैं, पारसी नहीं'। फिर भी उन्होंने कहा कि सम्भव है कि हिन्दू उपासकों के बड़े समुदाय के बीच हो सकता है कि इक्के-दुक्के 'असली गेबेर (यानि ज़र्थुष्टी या पारसी)' भी उपस्थित रहें हों।[8][9]
भारतीय निवासी और तीर्थयात्री
मध्यकाल के अंत में पूरे मध्य एशिया में भारतीय समुदाय फैले हुए थे।[10][11] बाकू में पंजाब के मुल्तान क्षेत्र के लोग, आर्मेनियाई लोगों के साथ-साथ, व्यापार पर हावी थे।[12] कैस्पियन सागर पर चलने वाले समुद्री जहाज़ों पर लकड़ी का काम भी भारतीय कारीगर ही किया करते थे।[8] बहुत से इतिहासकारों की सोच है कि बाकू के इसी भारतीय समुदाय के लोगों ने आतेशगाह को बनवाया होगा या किसी पुराने ढाँचे कि मरम्मत कर के इसे मंदिर बना लिया होगा।[11][12]
जैसे-जैसे यूरोपीय विद्वान मध्य एशिया और भारतीय उपमहाद्वीप में आने लगे, उन्हें अक्सर इस मंदिर पर और उत्तर भारत और बाकू के बीच सफ़र करते हिन्दू भक्त मिल जाया करते थे।[8][9][12][13][14]
चित्रदीर्घा
- बाहर से परिसर का दृष्य
- प्रवेश द्वार
- परिसर के मध्य स्थित मन्दिर
- अग्निकुण्ड
- ब्रोकहाउस और एफ्रॉन द्वारा रचित विश्वकोश (1890-1907) में अतेशगाह का विवरण