राष्ट्रों का धन

राष्ट्रों का धन, जिसका अंग्रेज़ी शीर्षक द वेल्थ ऑफ नेशन्स (The Wealth of Nations) और पूर्ण शीर्षक राष्ट्रों का धन की प्रकृति और कारणों की जाँच (An Inquiry into the Nature and Causes of the Wealth of Nations) है, सन् 1776 में प्रकाशित एक पुस्तक है जो इस बात का गहराई से अध्ययन करती है कि किसी राष्ट्र में सम्पन्नता और समृद्धि किस तरह से आती है। यह विश्वभर में इस प्रकार की पहली पुस्तकों में से एक थी और इसे अर्थशास्त्र की एक बुनियादी कृति माना जाता है। यह औद्योगिक क्रांति की शुरुआत की अर्थव्यवस्था से आरम्भ होती है और श्रम के विभाजन, उत्पादकता और मुक्त बाज़ारों जैसे विस्तृत विषयों को छूती है।[1][2][3]

राष्ट्रों का धन
द वेल्थ ऑफ नेशन्स  
लेखक ऐडम स्मिथ
मूल शीर्षक The Wealth of Nations
देश स्कॉटलैण्ड, ब्रिटेन
भाषा अंग्रेज़ी
प्रकार अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र
प्रकाशक डब्ल्यू स्ट्रैहैन ऐण्ड टी कैडॅल, लंदन
प्रकाशन तिथि 1776

सार

प्रथम खण्ड: श्रम की उत्पादक शक्तियों में सुधार के कारण

श्रम विभाजन: लोग दिन भर मेहनत तो हर देश में करते हैं। तो फिर एक देश में दैनिक श्रम से अधिक सम्पन्नता और दूसरे में कम क्यों होती है? देखा जाता है कि जहाँ उद्योग और आर्थिक सुधार अधिक है, वहाँ श्रम का विभाजन भी अधिक है और इसी से इन देशों में सर्वव्यापी समृद्धि उत्पन्न होती है। प्राकृतिक रूप से कृषि में श्रम विभाजन कम और विनिर्माण (मैन्युफैकचरिंग) में अधिक होता है, इसलिए कृषि क्षेत्र में गरीब और अमीर देशों में अंतर इतना नहीं होता लेकिन अमीर देश विनिर्माण में गरीब देशों से काफी आगे होते हैं। विनिर्माण-केन्द्रित होने से ही अमीरी आती है, कृषि-केन्द्रित होने से कभी नहीं।

श्रम विभाजन बाज़ार के आकार से सीमित होता है: जहाँ व्यापार करने का बाज़ार छोटा हो, वहाँ श्रम विभजन भी सीमित होता है। खुले व्यापार द्वारा व्यापारिक क्षेत्र बढ़ाने से श्रम विभाजन और राष्ट्रीय धन में वृद्धि होती है। यही कारण है कि इतिहास में बंदरगाह वाले क्षेत्र अधिक अमीर हुआ करते थे क्योंकि उनकी व्यापारिक पहुँच अन्य क्षेत्रों से अधिक थी।

पैसे की उत्पत्ति और प्रयोग: कोई अकेले श्रम भला कितना ही कर ले, उसकी सभी आवश्यकाएँ उस से कभी पूरी नहीं होंगी। इसी से वस्तु विनिमय (बार्टर, यानि वस्तुओं का व्यापारिक लेनदेन) आरम्भ हुआ था। इसके विस्तार के लिए पैसे का आविष्कार हुआ। मुद्रा धातु के टुकड़ों (सिक्कों) की बनने लगी।

श्रमिकों की आय: श्रमिक आपस में नौकरियों के लिए स्पर्धा करते हैं और उन्हें नौकरी देने वाले मालिक आपस में अच्छे श्रमिकों को अपने काम में लगाने के लिए स्पर्धा करते हैं। इसी से आय उत्पन्न होती है। (देखिए: आर्थिक संतुलन)। जब श्रमिक अधिक हों तो आय गिरती है और जब नौकरियाँ अधिक हों तो आय बढ़ती है। सरकार हस्तक्षेप द्वारा किसी आर्थिक क्षेत्र को दी गई सहायिकी (सब्सीडी) अक्सर बुर असर लाती है क्योंकि इस से आवश्यकता से अधिक लोग उस आर्थिक क्षेत्र में काम करने लगते हैं। इस से आगे चलकर उनकी आय घटती है।

द्वितीय खण्ड: पूंजी का संग्रह और प्रयोग

पूंजी का विभाजन: जब किसी के पास कम पूंजी हो, तो वह उसे बचा-बचाकर प्रयोग करता है और उसे पूंजी को ऐसे प्रयोगों में लगाने का विचार नहीं आता जिस से पूंजी उसके लिए आय कमा सके। गरीब लोग इसी स्थिति में होते हैं। अगर किसी के पास पूंजी पर्याप्त मात्रा में हो जाए, तो वह फिर उसे ऐसे प्रयोगों में लगाने की सोचता है जिस से उसको आय मिले (यानि किसी कम्पनी या व्यापार में शेयर लेना)।

किसी चीज़ के मूल्य का विभाजन: हर चीज़ के मूल्य में तीन भाग निहित होते हैं: उसमें लगे श्रम की आय, उसे बनाने में लगी पूंजी की आय (यानि कम्पनियों के शेयरों के मालिकों को मिलने वाला पैसा) और जिस स्थान पर वह चीज़ बन रही है उसका किराया का दाम। कुछ चीजों में और सबसे निर्धन देशों में मूल्य का अधार केवल श्रम की आय भी हो सकती है।

पूंजी का संचय, तथा उत्पादक व अनुत्पादक श्रम: एक प्रकार के श्रम में श्रम द्वारा किसी चीज़ के मूल्य में वृद्धि होती है, जैसे कि किसी विनिर्माण से कच्चे माल से उपयोगी वस्तु बनती है - इसे उत्पादक श्रम कहा जाता है। दूसरे प्रकार के श्रम में किसी चीज़ के मूल्य में कोई वृद्धि नहीं होती। जैसे किसी की चाकरी करने में - इसे अनुत्पादक श्रम कहा जा सकता है।

ब्याज पर उधार दी गई पूंजी: जब कोई व्यक्ति अपनी पूंजी उधार देता है, तो वह अपेक्षा करता है कि उसे इसे देने का किराया (ब्याज) मिलेगा और समय होने पर उसे अपना पैसा वापस दे दिया जाएगा। उधार लेने वाला इस पूंजी को व्यापार में लगा सकता है (यानि शेयर का स्वामी बन सकता है) या अपने ऊपर खर्च कर सकता है। अगर वह व्यापार के शेयरों में लगाता है तो इस से श्रमिकों के लिए नौकरियाँ उत्पन्न होती है और उनके श्रम से मूल पैसे के साथ-साथ उसे कुछ मुनाफा-रूपी आय भी मिल पाती है। फिर वह अपना कर्ज़ा भी लौटा पाता है और ऊपर से अपने खुद की नई पूंजी भी बना पाता है। लेकिन जो उधार ली हुई पूंजी अपने ऊपर लगा दे, वह कर्ज़ा वापस करने में भी अक्षम होता है, अपनी पूंजी बनाने से वंछित भी रहता और और समाज में नौकरियाँ भी नहीं स्थापित करता। जब कोई पैसा उधार देता है तो वह सूझबूझ कर देता है कि कर्ज़ा लेने वाला उत्पादक काम में लगाएगा। लेकिन कभी-कभी गलती से फज़ूल-खर्चियों को भी दे बेठता है।

पूंजी लगाने के तरीके: पूंजी चार प्रकार के कार्यों में लग सकती है। पहला, माल खरीदकर सीधा समाज में खपत के लिए बेचना, जैसे कि कृषि। दूसरा, कच्चा माल खरीदकर उसे विनिर्माण में लगाना जिसे फिर समाज में बेचा जाता है। तीसरा, कच्चे माल या विनिर्मित वस्तुओं को उनके उपलब्धि-स्थान से लेकर उन्हें विक्रय-स्थान तक पहुँचवाना। चौथा, माल की बड़ी मात्रा को लेकर उसे छोटे भागों में बाँटना ताकि उसे खरीदने वाले उसे खरीद सकें।

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सन्दर्भ

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