सफ़ेद बौना
खगोलशास्त्र में श्वेत बौना या व्हाइट ड्वार्फ़ एक छोटे तारे को बोला जाता है जो "अपकृष्ट इलेक्ट्रॉन पदार्थ" का बना हो। "अपकृष्ट इलेक्ट्रॉन पदार्थ" या "ऍलॅक्ट्रॉन डिजॅनरेट मैटर" में इलेक्ट्रॉन अपने परमाणुओं से अलग होकर एक गैस की तरह फैल जाते हैं और नाभिक (न्युक्लिअस, परमाणुओं के घना केंद्रीय हिस्से) उसमें तैरते हैं। श्वेत बौने बहुत घने होते हैं - वे पृथ्वी के जितने छोटे आकार में सूर्य के जितना द्रव्यमान (मास) रख सकते हैं।
माना जाता है के जिन तारों में इतना द्रव्यमान नहीं होता के वे आगे चलकर अपना इंधन ख़त्म हो जाने पर न्यूट्रॉन तारा बन सकें, वे सारे श्वेत बौने बन जाते हैं। इस नज़रिए से आकाशगंगा (हमारी गैलेक्सी) के ९७% तारों के भाग्य में श्वेत बौना बन जाना ही लिखा है। श्वेत बौनों की रौशनी बड़ी मध्यम होती है। वक़्त के साथ-साथ श्वेत बौने ठन्डे पड़ते जाते हैं और वैज्ञानिकों की सोच है के अरबों साल में अंत में जाकर वे बिना किसी रौशनी और गरमी वाले काले बौने बन जाते हैं। क्योंकि हमारा ब्रह्माण्ड केवल १३.७ अरब वर्ष पुराना है इसलिए अभी इतना समय ही नहीं गुज़रा के कोई भी श्वेत बौना पूरी तरह ठंडा पड़कर काला बौना बन सके। इस वजह से आज तक खगोलशास्त्रियों को कभी भी कोई काला बौना नहीं मिला है।[1]
इतिहास
श्वेत बौनों का इतिहास आश्चर्यजनक खोजों और हमारे ब्रह्मांड की समझ को गहरा करने वाली निरंतर प्रगति का एक रोमांचक सफर है।
- 1844 मे जर्मन खगोलशास्त्री फ्रेडरिक बेसेल ने पहली बार महसूस किया कि सीरियस, रात के आकाश में सबसे चमकीला तारा, एक अदृश्य साथी के गुरुत्वाकर्षण से प्रभावित हो रहा है।
- 1862 मे जर्मन दूरबीन निर्माता अलवन क्लार्क ने अंततः इस अदृश्य साथी सीरियस बी को देखा।
- 1922 मे डच खगोलशास्त्री विलेम लुइटेन ने इन अजीब तारों के लिए “White Dwarf” शब्द गढ़ा।
- 20वीं सदी के मध्य मे वैज्ञानिकों ने श्वेत बौनों के अत्यधिक घनत्व और मंद प्रकाश को समझना शुरू किया।[2]