सुनहरा उर्दू
सुनहरा उर्दू या सुनहरा झुण्ड (मंगोल: Зүчийн улс, ज़ुची-इन उल्स; अंग्रेज़ी: Golden Horde) एक मंगोल ख़ानत थी जो १३वीं सदी में मंगोल साम्राज्य के पश्चिमोत्तरी क्षेत्र में शुरू हुई थी और जिसे इतिहासकार मंगोल साम्राज्य का हिस्सा मानते हैं। इसे किपचक ख़ानत और जोची का उलुस भी कहा जाता था। यह ख़ानत १२४० के दशक में स्थापित हुई और सन् १५०२ तक चली। यह अपने बाद के काल में तुर्की प्रभाव में आकर एक तुर्की-मंगोल साम्राज्य बन चला था। इस साम्राज्य की नीव जोची ख़ान के पुत्र (और चंगेज़ ख़ान के पोते) बातु ख़ान ने रखी थी। अपने चरम पर इस ख़ानत में पूर्वी यूरोप का अधिकतर भाग और पूर्व में साइबेरिया में काफ़ी दूर तक का इलाक़ा शामिल था। दक्षिण में यह कृष्ण सागर के तट और कॉकस क्षेत्र तक विस्तृत थी। इसकी दक्षिण सीमाएँ इलख़ानी साम्राज्य नाम की एक अन्य मंगोल ख़ानत से लगती थीं।[1]
बातु ख़ान के बाद यह ख़ानत सौ साल तक पनपती रही। १३१२ से १३४१ तक राज करने वाले उज़बेग ख़ान ने इस्लाम में धर्म परिवर्तन कर लिया।[2] १३५९ में ख़ानत में अंदरूनी लड़ाईयां भड़क उठी लेकिन १३८१ में तोख़्तामिश ने फिर से इसे संगठित किया। १३९६ में तैमूर के हमले के बाद यह छोटी तातार ख़ानतों में खंडित हो गई। १४३३ तक इसका नाम सिर्फ़ 'महान उर्दू' बन गया और इसके क्षेत्र में बहुत सी तुर्की-भाषी ख़ानतें उभर आई। उत्तर में अधीन मुस्कोवी (रूसी) राज्य ने इन दरारों का फ़ायदा उठाकर अपने आप को १४८० में एक युद्ध के बाद आज़ाद करा लिया। सुनहरे उर्दू का बचा-कुचा अंश १५०२ में ख़त्म हो गया।[3]
नाम की उत्पत्ति
इस साम्राज्य का नाम 'सुनहरा' क्यों पड़ा इसपर इतिहासकारों में मतभेद है लेकिन 'पीला' रंग पुरानी तुर्की और मंगोल भाषाओँ में 'केन्द्रीय' के लिए भी एक शब्द होता था। यश भी संभव है कि 'सुनहरा' शब्द इस ख़ानत की धनवान स्थिति को देखते हुए लगाया गया हो। 'उर्दू' शब्द मंगोल भाषा में 'महल', 'खेमे' या 'मुख्यालय' के लिए एक शब्द हुआ करता था। तुर्की भाषाओँ में इस से मिलता-जुलता 'ओर्ता' शब्द था जिसका मतलब 'तरफ़', 'विभाग' या 'दिशा' होता था। कहा जाता है कि बातु ख़ान का तम्बू सुनहरे रंग का होता था इसलिए यह भी संभव है कि ख़ानत का नाम उसी से पड़ा हो।[1]