देवनागरी

हिंदी, मराठी आदि भाषा को लिखी जाने वाली लिपि
(देवनागरी लिपि से अनुप्रेषित)

देवनागरी भारतीय उपमहाद्वीप में प्रयुक्त प्राचीन ब्राह्मी लिपि पर आधारित बाएँ से दाएँ आबूगीदा है। यह प्राचीन भारत में पहली से चौथी शताब्दी ईस्वी तक विकसित किया गया था और ७वीं शताब्दी ईस्वी तक नियमित उपयोग में था। देवनागरी लिपि, जिसमें १४ स्वर और ३३ व्यञ्जन सहित ४७ प्राथमिक वर्ण हैं, दुनिया में चौथी सबसे व्यापक रूप से अपनाई जाने वाली लेखन प्रणाली है, जिसका उपयोग १२० से अधिक भाषाओं के लिए किया जा रहा है। [4]

देवनागरी लिपि

देवनागरी लिपि (ऊपर स्वर है, नीचे व्यंजन है)
प्रकार आबूगीदा
भाषाएँ अपभ्रंश, अवधी, भीली, भोजपुरी, बोडो, ब्रज , छत्तीसगढ़ी, डोगरी, गढ़वाली हरियाणवी, हिंदी , हिंदुस्तानीghfg, कश्मीरी, कोंकणी,कुमाऊंनी, मगही, मैथिली, मराठी, मारवाड़ी, मुंदरी, नेवारी, नेपाली, पालि, पहाड़ी, प्राकृत, राजस्थानी, सादरी, संस्कृत, संताली, सरैकी, शेरपा, सिंधी, सूरजापुरी
समय अवधि पूर्व रूप: पहली शताब्दी ई.,[1] आधुनिक रूप: १०वीं शताब्दी ई.[2][3]
जनक प्रणाली
बाल प्रणालियाँ गुजराती
मोड़ी
Sister systems नन्दिनागरी
आईएसओ 15924 Deva, 315
दिशा बाएँ-से-दाएँ
यूनिकोड एलियास Devanagari
यूनिकोड रेंज U+0900–U+097F देवनागरी,
U+A8E0–U+A8FF देवनागरी विस्तारित,
U+1CD0–U+1CFF वैदिक विस्तार
[क] ब्राह्मी लिपियों का सॅमॅटिक से मूल, सार्वभौमिक रूप से सहमत नहीं है।
नोट: इस पृष्ठ पर आइपीए ध्वन्यात्मक प्रतीक हो सकते हैं।
देवनागरी में लिखी ऋग्वेद की पाण्डुलिपि

इस लिपि की शब्दावली भाषा के उच्चारण को दर्शाती है। रोमन लिपि के विपरीत, इस लिपि में अक्षर केस की कोई अवधारणा नहीं है। यह बाएँ से दाएँ लिखा गया है, चौकोर रूपरेखा के भीतर सममित गोल आकृतियों के लिए एक दृढ़ प्राथमिकता है, और एक क्षैतिज रेखा द्वारा पहचाना जा सकता है, जिसे शिरोरेखा के रूप में जाना जाता है, जो पूर्ण अक्षरों के शीर्ष के साथ चलती है। एक सरसरी दृष्टि में, देवनागरी लिपि अन्य भारतीय लिपियों जैसे पूर्वी नागरी लिपि या गुरमुखी लिपि से अलग दिखाई देती है, लेकिन एक निकटतम अवलोकन से पता चलता है कि वे कोण और संरचनात्मक जोर को छोड़कर बहुत समान हैं।

परिचय

अधिकतर भाषाओं की तरह देवनागरी भी बायें से दायें लिखी जाती है। प्रत्येक शब्द के ऊपर एक रेखा खिंची होती है (कुछ वर्णों के ऊपर रेखा नहीं होती है) जिसे शिरोरेखा कहते हैं। देवनागरी का विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ है। यह एक ध्वन्यात्मक लिपि है जो प्रचलित लिपियों (रोमन, अरबी, चीनी आदि) में सबसे अधिक वैज्ञानिक है। इससे वैज्ञानिक और व्यापक लिपि शायद केवल अध्वव लिपि है। भारत की कई लिपियाँ देवनागरी से बहुत अधिक मिलती-जुलती हैं, जैसे- बांग्ला, गुजराती, गुरुमुखी आदि। कम्प्यूटर प्रोग्रामों की सहायता से भारतीय लिपियों को परस्पर परिवर्तन बहुत आसान हो गया है।

भारतीय भाषाओं के किसी भी शब्द या ध्वनि को देवनागरी लिपि में ज्यों का त्यों लिखा जा सकता है और फिर लिखे पाठ को लगभग 'हू-ब-हू' उच्चारण किया जा सकता है, जो कि रोमन लिपि और अन्य कई लिपियों में सम्भव नहीं है, जब तक कि उनका विशेष मानकीकरण न किया जाये, जैसे आइट्रांस या अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृत लिप्यन्तरण वर्णमाला

इसमें कुल ५२ अक्षर हैं, जिसमें १४ स्वर और ३८ व्यंजन हैं। अक्षरों की क्रम व्यवस्था (विन्यास) भी बहुत ही वैज्ञानिक है। स्वर-व्यंजन, कोमल-कठोर, अल्पप्राण-महाप्राण, अनुनासिक्य-अन्तस्थ-उष्म इत्यादि वर्गीकरण भी वैज्ञानिक हैं। एक मत के अनुसार देवनगर (काशी) में प्रचलन के कारण इसका नाम देवनागरी पड़ा।

भारत तथा एशिया की अनेक लिपियों के संकेत देवनागरी से अलग हैं, परन्तु उच्चारण व वर्ण-क्रम आदि देवनागरी के ही समान हैं, क्योंकि वे सभी ब्राह्मी लिपि से उत्पन्न हुई हैं (उर्दू को छोड़कर)। इसलिए इन लिपियों को परस्पर आसानी से लिप्यन्तरित किया जा सकता है। देवनागरी लेखन की दृष्टि से सरल, सौन्दर्य की दृष्टि से सुन्दर और वाचन की दृष्टि से सुपाठ्य है।

देवनागरी' शब्द की व्युत्पत्ति

देवनागरी या नागरी नाम का प्रयोग "क्यों" प्रारम्भ हुआ और इसका व्युत्पत्तिपरक प्रवृत्तिनिमित्त क्या था- यह अब तक पूर्णतः निश्चित नहीं है।

(क) 'नागर' अपभ्रंश या गुजराती "नागर" ब्राह्मणों से उसका सम्बन्ध बताया गया है। पर दृढ़ प्रमाण के अभाव में यह मत सन्दिग्ध है।

(ख) दक्षिण में इसका प्राचीन नाम "नंदिनागरी" था। हो सकता है "नन्दिनागर" कोई स्थानसूचक हो और इस लिपि का उससे कुछ सम्बन्ध रहा हो।

(ग) यह भी हो सकता है कि "नागर" जन इसमें लिखा करते थे, अत: "नागरी" अभिधान पड़ा और जब संस्कृत के ग्रंथ भी इसमें लिखे जाने लगे तब "देवनागरी" भी कहा गया।

(घ) सांकेतिक चिह्नों या देवताओं की उपासना में प्रयुक्त त्रिकोण, चक्र आदि संकेतचिह्नों को "देवनागर" कहते थे। कालान्तर में नाम के प्रथमाक्षरों का उनसे बोध होने लगा और जिस लिपि में उनको स्थान मिला- वह 'देवनागरी' या 'नागरी' कही गई। इन सब पक्षों के मूल में कल्पना का प्राधान्य है, निश्चयात्मक प्रमाण अनुपलब्ध हैं।

देवनागरी लिपि का उपयोग करने वाली भाषाएँ

  • छिन्ताङ
  • जिरेल
  • जुम्ली
  • तिलुङ
  • वारली
  • वासवी
  • वागडी

[5]डोगरी

पहाड़ी भाषा में भी हम अधिकतम शब्द देवनागरी लिपी के नज़र आते हैं।

इतिहास

मुंबई के परेल नामक उपनगर में प्राप्त प्राचीन देवनागरी शिलालेख। यह सन् ११०९ ई में बनाया गया था।
वाराणसी में देवनागरी लिपि में लिखे विज्ञापन
मुंबई के सार्वजनिक यातायात के टिकट पर देवनागरी
मेलबर्न ऑस्ट्रेलिया की एक ट्राम पर देवनागरी लिपि

देवनागरी, भारत, नेपाल, तिब्बत और दक्षिण पूर्व एशिया की लिपियों के ब्राह्मी लिपि परिवार का हिस्सा है।[6][7] गुजरात से कुछ अभिलेख प्राप्त हुए हैं जिनकी भाषा संस्कृत है और लिपि नागरी लिपि। ये अभिलेख पहली ईसवी से लेकर चौथी ईसवी के कालखण्ड के हैं।[8] ध्यातव्य है कि नागरी लिपि, देवनागरी से बहुत निकट है और देवनागरी का पूर्वरूप है। अतः ये अभिलेख इस बात के साक्ष्य हैं कि प्रथम शताब्दी में भी भारत में देवनागरी का उपयोग आरम्भ हो चुका था। नागरी, सिद्धम और शारदा तीनों ही ब्राह्मी की वंशज हैं।[9] रुद्रदमन के शिलालेखों का समय प्रथम शताब्दी का समय है और इसकी लिपि की देवनागरी से निकटता पहचानी जा सकती हैं। जबकि देवनागरी का जो वर्तमान मानक स्वरूप है, वैसी देवनागरी का उपयोग १००० ई के पहले आरम्भ हो चुका था। [10][11]

मध्यकाल के शिलालेखों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि नागरी से सम्बन्धित लिपियों का बड़े पैमाने पर प्रसार होने लगा था। कहीं-कहीं स्थानीय लिपि और नागरी लिपि दोनों में सूचनाएँ अंकित मिलतीं हैं। उदाहरण के लिए, ७वीं-८वीं शताब्दी के पट्टदकल्लु (मन्दिर परिसर) (कर्नाटक) के स्तम्भ पर सिद्धमात्रिका और तेलुगु-कन्नड लिपि के आरम्भिक रूप - दोनों में ही सूचना लिखी हुई है। कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) के ज्वालामुखी अभिलेख में शारदा और देवनागरी दोनों में लिखा हुआ है। [12]

७वीं शताब्दी तक देवनागरी का नियमित रूप से उपयोग होना आरम्भ हो गया था और लगभग १००० ई तक देवनागरी का पूर्ण विकास हो गया था।[13][14]

डॉ॰ द्वारिका प्रसाद सक्सेना के अनुसार सर्वप्रथम देवनागरी लिपि का प्रयोग गुजरात के नरेश जयभट्ट (७००-८०० ई.) के शिलालेख में मिलता है। आठवीं शताब्दी में चित्रकूट, नवीं में बड़ौदा के ध्रुवराज भी अपने राज्यादेशों में इस लिपि का उपयोग किया हैं।

७५८ ई. का राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग का सामगढ़ ताम्रपट मिलता है जिस पर देवनागरी अंकित है। शिलाहारवंश के गंडारादित्य प्रथम के उत्कीर्ण लेख की लिपि देवनागरी है। इसका समय बारहवीं शताब्दी हैं। ग्यारहवीं शताब्दी के चोलराजा राजेन्द्र के सिक्के मिले हैं जिन पर देवनागरी लिपि अंकित है। राष्ट्रकूट राजा इंद्रराज (दसवीं शताब्दी) के लेख में भी देवनागरी का व्यवहार किया है। प्रतिहार राजा महेंद्रपाल (८९१-९०७) का दानपत्र भी देवनागरी लिपि में है।

कनिंघम की पुस्तक में सबसे प्राचीन मुसलमानों सिक्के के रूप में महमूद गजनवी द्वारा चलाये गए चांदी के सिक्के का वर्णन है जिस पर देवनागरी लिपि में संस्कृत अंकित है। मुहम्मद विनसाम (११९२-१२०५) के सिक्कों पर लक्ष्मी की मूर्ति के साथ देवनागरी लिपि का व्यवहार हुआ है। शम्सुद्दीन इल्तुतमिश (१२१०-१२३५) के सिक्कों पर भी देवनागरी अंकित है। सानुद्दीन फिरोजशाह प्रथम, जलालुद्दीन रज़िया, बहराम शाह, अलाऊद्दीन मसूदशाह, नासिरुद्दीन महमूद, मुईजुद्दीन, गयासुद्दीन बलवन, मुईजुद्दीन कैकूबाद, जलालुद्दीन हीरो सानी, अलाउद्दीन महमद शाह आदि ने अपने सिक्कों पर देवनागरी अक्षर अंकित किये हैं। अकबर के सिक्कों पर देवनागरी में ‘राम‘ सिया का नाम अंकित है। गयासुद्दीन तुग़लक़, शेरशाह सूरी, इस्लाम शाह, मुहम्मद आदिलशाह, गयासुद्दीन इब्ज, ग्यासुद्दीन सानी आदि ने भी इसी परम्परा का पालन किया।

भाषाविज्ञान की दृष्टि से देवनागरी

भाषावैज्ञानिक दृष्टि से देवनागरी लिपि अक्षरात्मक (सिलेबिक) लिपि मानी जाती है। लिपि के विकाससोपानों की दृष्टि से "चित्रात्मक", "भावात्मक" और "भावचित्रात्मक" लिपियों के अनंतर "अक्षरात्मक" स्तर की लिपियों का विकास माना जाता है। पाश्चात्य और अनेक भारतीय भाषाविज्ञानविज्ञों के मत से लिपि की अक्षरात्मक अवस्था के बाद अल्फाबेटिक (वर्णात्मक) अवस्था का विकास हुआ। सबसे विकसित अवस्था मानी गई है ध्वन्यात्मक(फोनेटिक) लिपि की। "देवनागरी" को अक्षरात्मक इसलिए कहा जाता है कि इसके वर्ण- अक्षर (सिलेबिल) हैं- स्वर भी और व्यंजन भी। "क", "ख" आदि व्यंजन सस्वर हैं- अकारयुक्त हैं। वे केवल ध्वनियाँ नहीं हैं अपितु सस्वर अक्षर हैं। अत: ग्रीक, रोमन आदि वर्णमालाएँ हैं। परंतु यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि भारत की "ब्राह्मी" या "भारती" वर्णमाला की ध्वनियों में व्यंजनों का "पाणिनि" ने वर्णसमाम्नाय के १४ सूत्रों में जो स्वरूप परिचय दिया है- उसके विषय में "पतंजलि" (द्वितीय शताब्दी ई.पू.) ने यह स्पष्ट बता दिया है कि व्यंजनों में संनियोजित "अकार" स्वर का उपयोग केवल उच्चारण के उद्देश्य से है। वह तत्वतः वर्ण का अंग नहीं है। इस दृष्टि से विचार करते हुए कहा जा सकता है कि इस लिपि की वर्णमाला तत्वतः ध्वन्यात्मक है, अक्षरात्मक नहीं।

Writen By:- Dev Chouhan

देवनागरी वर्णमाला

देवनागरी की वर्णमाला में १२ स्वर और ३४ व्यञ्जन हैं। शून्य या एक या अधिक व्यञ्जनों और एक स्वर के मेल से एक अक्षर बनता है।

स्वर

निम्नलिखित स्वर आधुनिक हिन्दी (खड़ी बोली) के लिये दिए गए हैं। संस्कृत में इनके उच्चारण थोड़े अलग होते हैं।

वर्णाक्षर“प” के साथ मात्रा IPA उच्चारण"प्" के साथ उच्चारणIAST समतुल्यहिन्दी में वर्णन
/ ə // /aबीच का मध्य प्रसृत स्वर
पा/ αː / या / // pɑː / या /paː/āदीर्घ विवृत पश्व प्रसृत स्वर
पि/ ɪ // /iह्रस्व संवृत अग्र प्रसृत स्वर
पी/ // piː /īदीर्घ संवृत अग्र प्रसृत स्वर
पु/ ʊ // /uह्रस्व संवृत पश्व वर्तुल स्वर
पू/ // puː /ūदीर्घ संवृत पश्व वर्तुल स्वर
पे/ e: // pe: /eदीर्घ अर्धसंवृत अग्र प्रसृत स्वर
पै/ ɛ: // pɛ: /aiदीर्घ लगभग-विवृत अग्र प्रसृत स्वर
पो/ ο: // pο: /oदीर्घ अर्धसंवृत पश्व वर्तुल स्वर
पौ/ ɔ: // pɔ: /auदीर्घ अर्धविवृत पश्व वर्तुल स्वर

संस्कृत में दो स्वरों का युग्म होता है और "अ–इ" या "आ-इ" की तरह बोला जाता है। इसी तरह "अ-उ" या "आ-उ" की तरह बोला जाता है।

इसके अलावा हिन्दी और संस्कृत में

  • — आधुनिक हिन्दी में "रि" की तरह
  • — केवल संस्कृत में
  • — केवल संस्कृत में
  • — केवल संस्कृत में
  • अं — ङ् , ञ् , ण्, न्, म् के लिये या स्वर का नासिकीकरण करने के लिये
  • अँ — स्वर का नासिकीकरण करने के लिये
  • अः — अघोष "ह्" (निःश्वास) के लिये
  • और — इनका उपयोग मराठी और कभी–कभी हिन्दी में अंग्रेजी शब्दों का निकटतम उच्चारण तथा लेखन करने के लिए किया जाता है।

व्यञ्जन

जब किसी स्वर प्रयोग नहीं हो, तो वहाँ पर 'अ' (अर्थात श्वा का स्वर) माना जाता है। स्वर के न होने को हलन्त्‌ अथवा विराम से दर्शाया जाता है। जैसे कि क्‌ ख्‌ ग्‌ घ्‌। जिन वर्णो को बोलने के लिए स्वर की सहायता लेनी पड़ती है उन्हें व्यञ्जन कहते है। दूसरे शब्दो में- व्यञ्जन उन वर्णों को कहते हैं, जिनके उच्चारण में स्वर वर्णों की सहायता ली जाती है।

स्पर्श (Plosives)
अल्पप्राण
अघोष
महाप्राण
अघोष
अल्पप्राण
घोष
महाप्राण
घोष
नासिक्य
कण्ठ्य / /
/khə/
/ /
/gɦə/
/ŋə/
तालव्य / tʃə /
/tʃhə/
/dʒə/
/dʒɦə/
/ɲə/
मूर्धन्य / ʈə /
hə/
/ ɖə /
ɦə/
/ɳə/
दन्त्य / t̪ə /
/t̪hə/
/ d̪ə /
/d̪ɦə/
/nə/
ओष्ठ्य / /
/phə/
/ /
/bɦə/
/mə/
स्पर्शरहित (Non-Plosives)
तालव्यमूर्धन्यदन्त्य/
वर्त्स्य
कण्ठोष्ठ्य/
काकल्य
अन्तस्थ /jə/
/ ɾə /
/lə/
/ ʋə /
ऊष्म/
संघर्षी
/ʃə/
/ʂə/
/sə/
/ ɦə / या / /
नोट करें -
  • इनमें से (मूर्धन्य पार्श्विक अन्तस्थ) एक अतिरिक्त व्यञ्जन है जिसका प्रयोग हिन्दी में नहीं होता है। मराठी, वैदिक संस्कृत, कोंकणी, मेवाड़ी, हरयाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की खडी बोली इत्यादि में इसका प्रयोग किया जाता है।
  • संस्कृत में का उच्चारण ऐसे होता था: जीभ की नोक को मूर्धा (मुँह की छत) की ओर उठाकर जैसी आवाज़ करना। शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिनि शाखा में कुछ वाक़्यात में का उच्चारण की तरह करना मान्य था। यदि यह 'ट्, ठ्, ड्, ढ्' ध्वनियों से पहले न आए तो इसका उच्चारण आजकल हिंदी में तालव्य (श) होता है।
  • हिन्दी में का उच्चारण ज़्यादातर ड़ँ की तरह होता है, यानि कि जीभ मुँह की छत को एक ज़ोरदार ठोकर मारती है। पर संस्कृत में ण का उच्चारण की तरह बिना ठोकर मारे होता था, अन्तर केवल इतना कि जीभ के समय मुँह की छत को छूती है।

नुक़्ता वाले व्यञ्जन

हिन्दी भाषा में मुख्यतः अरबी और फ़ारसी भाषाओं से आये शब्दों को देवनागरी में लिखने के लिये कुछ वर्णों के नीचे नुक़्ता (बिन्दु) लगे वर्णों का प्रयोग किया जाता है (जैसे क़, ज़ आदि)। किन्तु हिन्दी में भी अधिकांश लोग नुक्तों का प्रयोग नहीं करते। इसके अलावा संस्कृत, मराठी, नेपाली एवं अन्य भाषाओं को देवनागरी में लिखने में भी नुक्तों का प्रयोग नहीं किया जाता है।

वर्णाक्षर (अन्तर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला उच्चारण)उदाहरणहिन्दी में वर्णनअंग्रेज़ी में वर्णनअशुद्ध उच्चारण
क़ (/q/)क़त्लअघोष अलिजिह्वीय स्पर्शVoiceless uvular stop  क (/k/)
ख़ (/x or χ/)ख़रीदअघोष अलिजिह्वीय या कण्ठ्य संघर्षीVoiceless uvular or velar fricativeख (/kh/)
ग़ (/ɣ or ʁ/)ग़ैरघोष अलिजिह्वीय या कण्ठ्य संघर्षीVoiced uvular or velar fricativeग (/g/)
ज़ (/z/)ज़िन्दगीघोष वर्त्स्य संघर्षीVoiced alveolar fricativeज (/dʒ/)
झ़ (/ʒ/)अझ़दहाघोष तालव्य संघर्षीVoiced palatal fricativeज (/dʒ/)
ड़ (/ ɽ /)पेड़अल्पप्राण मूर्धन्य उत्क्षिप्तUnaspirated retroflex flap  -
ढ़ (/ɽh/)पढ़नामहाप्राण मूर्धन्य उत्क्षिप्तAspirated retroflex flap  -
थ़ (/θ/)अथ़्रूअघोष दन्त्य संघर्षीVoiceless dental fricativeथ (/t̪h/)
द़ (/ð/)अद़ानघोष दन्त्य संघर्षीVoiced dental fricativeद (/d̪/)
फ़ (/f/)फ़र्क़अघोष दन्त्यौष्ठ्य संघर्षीVoiceless labio-dental fricativeफ (/ph/)
ब़ (/v/)केलेब़घोष दन्त्यौष्ठ्य संघर्षीVoiced labio-dental fricativeब (/b/)
य़ (/yʰ/)फुलाय़घोष दन्त्यौष्ठ्य संघर्षीVoiced labio-dental fricativeय (/y/)

थ़ का प्रयोग मुख्यतः पहाड़ी भाषाओँ में होता है जैसे की डोगरी (की उत्तरी उपभाषाओं) में "आँसू" के लिए शब्द है "अथ़्रू"। हिन्दी में ड़ और ढ़ व्यञ्जन फ़ारसी या अरबी से नहीं लिए गए हैं, न ही ये संस्कृत में पाये जाये हैं। असल में ये संस्कृत के साधारण ड/ट और ढ/ठ के बदले हुए रूप हैं।

विराम-चिह्न, वैदिक चिह्न आदि

प्रतीकनामकार्य
डण्डा / खड़ी पाई / पूर्ण विरामवाक्य का अन्त बताने के लिए
दोहरा डण्डा/ दोहरा दंडइसका इस्तेमाल छंदात्मक ग्रंथों में छंदों को परिसीमित करने के लिए किया जाता है। गद्य में, दोहरे दंड का इस्तेमाल किसी पैराग्राफ़, कहानी या अनुभाग के अंत को चिह्नित करने के लिए किया जाता है. पदों और श्लोकों में भी दो दंड का प्रयोग होता है।
लाघव चिह्न  संक्षिप्तीकरण के लिये, जैसे मो॰ क॰ गाँधी
प्रणव , ओमहिन्दू धर्म का शुभ शब्द
प॑उदात्तउच्चारण बताने के लिए वैदिक संस्कृत के कुछ ग्रन्थों में प्रयुक्त
प॒अनुदात्तउच्चारण बताने के लिए वैदिक संस्कृत के कुछ ग्रन्थों में प्रयुक्त

देवनागरी अङ्क

देवनागरी अङ्क निम्न रूप में लिखे जाते हैं :

देवनागरी संयुक्ताक्षर

देवनागरी लिपि में दो व्यञ्जन का संयुक्ताक्षर निम्न रूप में लिखा जाता है :

क्कक्खक्गक्घक्ङक्चक्छक्जक्झक्ञक्टक्ठक्डक्ढक्णक्तक्थक्दक्धक्नक्पक्फक्बक्भक्मक्यक्रक्लक्वक्शक्षक्सक्हक्ळ
ख्कख्खख्गख्घख्ङख्चख्छख्जख्झख्ञख्टख्ठख्डख्ढख्णख्तख्थख्दख्धख्नख्पख्फख्बख्भख्मख्यख्रख्लख्वख्शख्षख्सख्हख्ळ
ग्कग्खग्गग्घग्ङग्चग्छग्जग्झग्ञग्टग्ठग्डग्ढग्णग्तग्थग्दग्धग्नग्पग्फग्बग्भग्मग्यग्रग्लग्वग्शग्षग्सग्हग्ळ
घ्कघ्खघ्गघ्घघ्ङघ्चघ्छघ्जघ्झघ्ञघ्टघ्ठघ्डघ्ढघ्णघ्तघ्थघ्दघ्धघ्नघ्पघ्फघ्बघ्भघ्मघ्यघ्रघ्लघ्वघ्शघ्षघ्सघ्हघ्ळ
ङ्कङ्खङ्गङ्घङ्ङङ्चङ्छङ्जङ्झङ्ञङ्टङ्ठङ्डङ्ढङ्णङ्तङ्थङ्दङ्धङ्नङ्पङ्फङ्बङ्भङ्मङ्यङ्रङ्लङ्वङ्शङ्षङ्सङ्हङ्ळ
च्कच्खच्गच्घच्ङच्चच्छच्जच्झच्ञच्टच्ठच्डच्ढच्णच्तच्थच्दच्धच्नच्पच्फच्बच्भच्मच्यच्रच्लच्वच्शच्षच्सच्हच्ळ
छ्कछ्खछ्गछ्घछ्ङछ्चछ्छछ्जछ्झछ्ञछ्टछ्ठछ्डछ्ढछ्णछ्तछ्थछ्दछ्धछ्नछ्पछ्फछ्बछ्भछ्मछ्यछ्रछ्लछ्वछ्शछ्षछ्सछ्हछ्ळ
ज्कज्खज्गज्घज्ङज्चज्छज्जज्झज्ञज्टज्ठज्डज्ढज्णज्तज्थज्दज्धज्नज्पज्फज्बज्भज्मज्यज्रज्लज्वज्शज्षज्सज्हज्ळ
झ्कझ्खझ्गझ्घझ्ङझ्चझ्छझ्जझ्झझ्ञझ्टझ्ठझ्डझ्ढझ्णझ्तझ्थझ्दझ्धझ्नझ्पझ्फझ्बझ्भझ्मझ्यझ्रझ्लझ्वझ्शझ्षझ्सझ्हझ्ळ
ञ्कञ्खञ्गञ्घञ्ङञ्चञ्छञ्जञ्झञ्ञञ्टञ्ठञ्डञ्ढञ्णञ्तञ्थञ्दञ्धञ्नञ्पञ्फञ्बञ्भञ्मञ्यञ्रञ्लञ्वञ्शञ्षञ्सञ्हञ्ळ
ट्कट्खट्गट्घट्ङट्चट्छट्जट्झट्ञट्टट्ठट्डट्ढट्णट्तट्थट्दट्धट्नट्पट्फट्बट्भट्मट्यट्रट्लट्वट्शट्षट्सट्हट्ळ
ठ्कठ्खठ्गठ्घठ्ङठ्चठ्छठ्जठ्झठ्ञठ्टठ्ठठ्डठ्ढठ्णठ्तठ्थठ्दठ्धठ्नठ्पठ्फठ्बठ्भठ्मठ्यठ्रठ्लठ्वठ्शठ्षठ्सठ्हठ्ळ
ड्कड्खड्गड्घड्ङड्चड्छड्जड्झड्ञड्टड्ठड्डड्ढड्णड्तड्थड्दड्धड्नड्पड्फड्बड्भड्मड्यड्रड्लड्वड्शड्षड्सड्हड्ळ
ढ्कढ्खढ्गढ्घढ्ङढ्चढ्छढ्जढ्झढ्ञढ्टढ्ठढ्डढ्ढढ्णढ्तढ्थढ्दढ्धढ्नढ्पढ्फढ्बढ्भढ्मढ्यढ्रढ्लढ्वढ्शढ्षढ्सढ्हढ्ळ
ण्कण्खण्गण्घण्ङण्चण्छण्जण्झण्ञण्टण्ठण्डण्ढण्णण्तण्थण्दण्धण्नण्पण्फण्बण्भण्मण्यण्रण्लण्वण्शण्षण्सण्हण्ळ
त्कत्खत्गत्घत्ङत्चत्छत्जत्झत्ञत्टत्ठत्डत्ढत्णत्तत्थत्दत्धत्नत्पत्फत्बत्भत्मत्यत्रत्लत्वत्शत्षत्सत्हत्ळ
थ्कथ्खथ्गथ्घथ्ङथ्चथ्छथ्जथ्झथ्ञथ्टथ्ठथ्डथ्ढथ्णथ्तथ्थथ्दथ्धथ्नथ्पथ्फथ्बथ्भथ्मथ्यथ्रथ्लथ्वथ्शथ्षथ्सथ्हथ्ळ
द्कद्खद्गद्घद्ङद्चद्छद्जद्झद्ञद्टद्ठद्डद्ढद्णद्तद्थद्दद्धद्नद्पद्फद्बद्भद्मद्यद्रद्लद्वद्शद्षद्सद्हद्ळ
ध्कध्खध्गध्घध्ङध्चध्छध्जध्झध्ञध्टध्ठध्डध्ढध्णध्तध्थध्दध्धध्नध्पध्फध्बध्भध्मध्यध्रध्लध्वध्शध्षध्सध्हध्ळ
न्कन्खन्गन्घन्ङन्चन्छन्जन्झन्ञन्टन्ठन्डन्ढन्णन्तन्थन्दन्धन्नन्पन्फन्बन्भन्मन्यन्रन्लन्वन्शन्षन्सन्हन्ळ
प्कप्खप्गप्घप्ङप्चप्छप्जप्झप्ञप्टप्ठप्डप्ढप्णप्तप्थप्दप्धप्नप्पप्फप्बप्भप्मप्यप्रप्लप्वप्शप्षप्सप्हप्ळ
फ्कफ्खफ्गफ्घफ्ङफ्चफ्छफ्जफ्झफ्ञफ्टफ्ठफ्डफ्ढफ्णफ्तफ्थफ्दफ्धफ्नफ्पफ्फफ्बफ्भफ्मफ्यफ्रफ्लफ्वफ्शफ्षफ्सफ्हफ्ळ
ब्कब्खब्गब्घब्ङब्चब्छब्जब्झब्ञब्टब्ठब्डब्ढब्णब्तब्थब्दब्धब्नब्पब्फब्बब्भब्मब्यब्रब्लब्वब्शब्षब्सब्हब्ळ
भ्कभ्खभ्गभ्घभ्ङभ्चभ्छभ्जभ्झभ्ञभ्टभ्ठभ्डभ्ढभ्णभ्तभ्थभ्दभ्धभ्नभ्पभ्फभ्बभ्भभ्मभ्यभ्रभ्लभ्वभ्शभ्षभ्सभ्हभ्ळ
म्कम्खम्गम्घम्ङम्चम्छम्जम्झम्ञम्टम्ठम्डम्ढम्णम्तम्थम्दम्धम्नम्पम्फम्बम्भम्मम्यम्रम्लम्वम्शम्षम्सम्हम्ळ
य्कय्खय्गय्घय्ङय्चय्छय्जय्झय्ञय्टय्ठय्डय्ढय्णय्तय्थय्दय्धय्नय्पय्फय्बय्भय्मय्यय्रय्लय्वय्शय्षय्सय्हय्ळ
र्कर्खर्गर्घर्ङर्चर्छर्जर्झर्ञर्टर्ठर्डर्ढर्णर्तर्थर्दर्धर्नर्पर्फर्बर्भर्मर्यर्रर्लर्वर्शर्षर्सर्हर्ळ
ल्कल्खल्गल्घल्ङल्चल्छल्जल्झल्ञल्टल्ठल्डल्ढल्णल्तल्थल्दल्धल्नल्पल्फल्बल्भल्मल्यल्रल्लल्वल्शल्षल्सल्हल्ळ
व्कव्खव्गव्घव्ङव्चव्छव्जव्झव्ञव्टव्ठव्डव्ढव्णव्तव्थव्दव्धव्नव्पव्फव्बव्भव्मव्यव्रव्लव्वव्शव्षव्सव्हव्ळ
श्कश्खश्गश्घश्ङश्चश्छश्जश्झश्ञश्टश्ठश्डश्ढश्णश्तश्थश्दश्धश्नश्पश्फश्बश्भश्मश्यश्रश्लश्वश्शश्षश्सश्हश्ळ
ष्कष्खष्गष्घष्ङष्चष्छष्जष्झष्ञष्टष्ठष्डष्ढष्णष्तष्थष्दष्धष्नष्पष्फष्बष्भष्मष्यष्रष्लष्वष्शष्षष्सष्हष्ळ
स्कस्खस्गस्घस्ङस्चस्छस्जस्झस्ञस्टस्ठस्डस्ढस्णस्तस्थस्दस्धस्नस्पस्फस्बस्भस्मस्यस्रस्लस्वस्शस्षस्सस्हस्ळ
ह्कह्खह्गह्घह्ङह्चह्छह्जह्झह्ञह्टह्ठह्डह्ढह्णह्तह्थह्दह्धह्नह्पह्फह्बह्भह्मह्यह्रह्लह्वह्शह्षह्सह्हह्ळ
ळ्कळ्खळ्गळ्घळ्ङळ्चळ्छळ्जळ्झळ्ञळ्टळ्ठळ्डळ्ढळ्णळ्तळ्थळ्दळ्धळ्नळ्पळ्फळ्बळ्भळ्मळ्यळ्रळ्लळ्वळ्शळ्षळ्सळ्हळ्ळ

ब्राह्मी परिवार की लिपियों में देवनागरी लिपि में सबसे अधिक संयुक्ताक्षर समर्थित हैं। डिजिटन उपकरणों पर छन्दस फॉण्ट देवनागरी में बहुत संयुक्ताक्षर समर्थन हैं।

द् + ध् + र् + य संयुक्ताक्षर

पुरानी देवनागरी

पुराने समय में प्रयुक्त हुई जाने वाली देवनागरी के कुछ वर्ण आधुनिक देवनागरी से भिन्न हैं।

आधुनिक देवनागरीपुरानी देवनागरी

देवनागरी लिपि के गुण

  • भारतीय भाषाओं के लिये वर्णों की पूर्णता एवं सम्पन्नता (५२ वर्ण, न बहुत अधिक न बहुत कम)।
  • एक ध्वनि के लिये एक सांकेतिक चिह्न -- जैसा बोलें वैसा लिखें।
  • लेखन और उच्चारण और में एकरुपता -- जैसा लिखें, वैसे पढ़े (वाचें)।
  • एक सांकेतिक चिह्न द्वारा केवल एक ध्वनि का निरूपण -- जैसा लिखें वैसा पढ़ें।
उपरोक्त दोनों गुणों के कारण ब्राह्मी लिपि का उपयोग करने वाली सभी भारतीय भाषाएँ 'स्पेलिंग की समस्या' से मुक्त हैं।
  • स्वर और व्यंजन में तर्कसंगत एवं वैज्ञानिक क्रम-विन्यास - देवनागरी के वर्णों का क्रमविन्यास उनके उच्चारण के स्थान (ओष्ठ्य, दन्त्य, तालव्य, मूर्धन्य आदि) को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है। इसके अतिरिक्त वर्ण-क्रम के निर्धारण में भाषा-विज्ञान के कई अन्य पहलुओ का भी ध्यान रखा गया है। देवनागरी की वर्णमाला (वास्तव में, ब्राह्मी से उत्पन्न सभी लिपियों की वर्णमालाएँ) एक अत्यन्त तर्कपूर्ण ध्वन्यात्मक क्रम (phonetic order) में व्यवस्थित है। यह क्रम इतना तर्कपूर्ण है कि अन्तरराष्ट्रीय ध्वन्यात्मक संघ (IPA) ने अन्तर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला के निर्माण के लिये मामूली परिवर्तनों के साथ इसी क्रम को अंगीकार कर लिया।
  • वर्णों का प्रत्याहार रूप में उपयोग : माहेश्वर सूत्र में देवनागरी वर्णों को एक विशिष्ट क्रम में सजाया गया है। इसमें से किसी वर्ण से आरम्भ करके किसी दूसरे वर्ण तक के वर्णसमूह को दो अक्षर का एक छोटा नाम दे दिया जाता है जिसे 'प्रत्याहार' कहते हैं। प्रत्याहार का प्रयोग करते हुए सन्धि आदि के नियम अत्यन्त सरल और संक्षिप्त ढंग से दिए गये हैं (जैसे, आद् गुणः)
  • देवनागरी लिपि के वर्णों का उपयोग संख्याओं को निरूपित करने के लिये किया जाता रहा है। (देखिये कटपयादि, भूतसंख्या तथा आर्यभट्ट की संख्यापद्धति)
  • मात्राओं की संख्या के आधार पर छन्दों का वर्गीकरण : यह भारतीय लिपियों की अद्भुत विशेषता है कि किसी पद्य के लिखित रूप से मात्राओं और उनके क्रम को गिनकर बताया जा सकता है कि कौन सा छन्द है। रोमन, अरबी एवं अन्य में यह गुण अप्राप्य है।
  • लिपि चिह्नों के नाम और ध्वनि में कोई अन्तर नहीं (जैसे रोमन में अक्षर का नाम “बी” है और ध्वनि “ब” है)
  • लेखन और मुद्रण में एकरूपता (रोमन, अरबी और फ़ारसी में हस्तलिखित और मुद्रित रूप अलग-अलग हैं)
  • देवनागरी, 'स्माल लेटर" और 'कैपिटल लेटर' की अवैज्ञानिक व्यवस्था से मुक्त है।
  • मात्राओं का प्रयोग
के उपर विभिन्न मात्राएं लगाने के बाद का स्वरूप
  • अर्ध-अक्षर के रूप की सुगमता : खड़ी पाई को हटाकर - दायें से बायें क्रम में लिखकर तथा अर्द्ध अक्षर को ऊपर तथा उसके नीचे पूर्ण अक्षर को लिखकर - ऊपर नीचे क्रम में संयुक्ताक्षर बनाने की दो प्रकार की रीति प्रचलित है।
  • अन्य - बायें से दायें, शिरोरेखा, संयुक्ताक्षरों का प्रयोग, अधिकांश वर्णों में एक उर्ध्व-रेखा की प्रधानता, अनेक ध्वनियों को निरूपित करने की क्षमता आदि।[15]
  • भारतवर्ष के साहित्य में कुछ ऐसे रूप विकसित हुए हैं जो दायें-से-बायें अथवा बाये-से-दायें पढ़ने पर समान रहते हैं। उदाहरणस्वरूप केशवदास का एक सवैया लीजिये :
मां सस मोह सजै बन बीन, नवीन बजै सह मोस समा।
मार लतानि बनावति सारि, रिसाति वनाबनि ताल रमा ॥
मानव ही रहि मोरद मोद, दमोदर मोहि रही वनमा।
माल बनी बल केसबदास, सदा बसकेल बनी बलमा ॥
इस सवैया की किसी भी पंक्ति को किसी ओर से भी पढिये, कोई अंतर नहीं पड़ेगा।
सदा सील तुम सरद के दरस हर तरह खास।
सखा हर तरह सरद के सर सम तुलसीदास॥

देवनागरी लिपि के दोष

लेकिन लगभग सभी भारतीय लिपियों में छोटी इ या छोटी ए (ऎ) की मात्रा व्यंजन के पहले ही लगती है।
  • (१) कुल मिलाकर 403 टाइप होने के कारण टंकण, मुद्रण में कठिनाई। किन्तु आधुनिक प्रिन्टर तकनीक के लिए यह कोई समस्या नहीं है।
  • (२) कुछ लोग शिरोरेखा का प्रयोग अनावश्यक मानते हैं।
  • (३) अनावश्यक वर्ण (ऋ, ॠ, लृ, ॡ, ष)— बहुत से लोग इनका शुद्ध उच्चारण नहीं कर पाते।
  • (४) द्विरूप वर्ण (अ, ज्ञ, क्ष, त्र, छ, झ, ण, श) आदि को दो-दो प्रकार से लिखा जाता है।
  • (५) समरूप वर्ण (ख में र+व का, घ में ध का, म में भ का भ्रम होना)।
  • (६) वर्णों के संयुक्त करने की व्यवस्था एकसमान नहीं है।
  • (७) अनुस्वार एवं अनुनासिक के प्रयोग में एकरूपता का अभाव।
  • (८) त्वरापूर्ण लेखन नहीं क्योंकि लेखन में हाथ बार–बार उठाना पड़ता है।
  • (९) वर्णों के संयुक्तीकरण में र के प्रयोग को लेकर अनेक लोगों को भ्रम की स्थिति।
  • (११) इ की मात्रा (ि) का लेखन वर्ण के पहले, किन्तु उच्चारण वर्ण के बाद।

देवनागरी पर महापुरुषों के विचार

आचार्य विनोबा भावे संसार की अनेक लिपियों के जानकार थे। उनकी स्पष्ट धारणा थी कि देवनागरी लिपि भारत ही नहीं, संसार की सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि है। अगर भारत की सब भाषाओं के लिए इसका व्यवहार चल पड़े तो सारे भारतीय एक दूसरे के बिल्कुल नजदीक आ जाएंगे। हिंदुस्तान की एकता में देवनागरी लिपि हिंदी से ही अधिक उपयोगी हो सकती है। अनन्त शयनम् अयंगार तो दक्षिण भारतीय भाषाओं के लिए भी देवनागरी की संभावना स्वीकार करते थे। सेठ गोविन्ददास इसे राष्ट्रीय लिपि घोषित करने के पक्ष में थे।

  • (१) हिन्दुस्तान की एकता के लिये हिन्दी भाषा जितना काम देगी, उससे बहुत अधिक काम देवनागरी लिपि दे सकती है।
आचार्य विनोबा भावे
  • (२) देवनागरी किसी भी लिपि की तुलना में अधिक वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित लिपि है।
सर विलियम जोन्स
  • (३) मानव मस्तिष्क से निकली हुई वर्णमालाओं में नागरी सबसे अधिक पूर्ण वर्णमाला है।
जान क्राइस्ट
  • (४) उर्दू लिखने के लिये देवनागरी लिपि अपनाने से उर्दू उत्कर्ष को प्राप्त होगी।
खुशवन्त सिंह
  • (५) The Devanagri alphabet is a splendid monument of phonological accuracy, in the sciences of language.
मोहन लाल विद्यार्थी - Indian Culture Through the Ages, p. 61
  • (६) एक सर्वमान्य लिपि स्वीकार करने से भारत की विभिन्न भाषाओं में जो ज्ञान का भंडार भरा है उसे प्राप्त करने का एक साधारण व्यक्ति को सहज ही अवसर प्राप्त होगा। हमारे लिए यदि कोई सर्व-मान्य लिपि स्वीकार करना संभव है तो वह देवनागरी है।
एम.सी.छागला
  • (७) प्राचीन भारत के महत्तम उपलब्धियों में से एक उसकी विलक्षण वर्णमाला है जिसमें प्रथम स्वर आते हैं और फिर व्यंजन जो सभी उत्पत्ति क्रम के अनुसार अत्यंत वैज्ञानिक ढंग से वर्गीकृत किये गए हैं। इस वर्णमाला का अविचारित रूप से वर्गीकृत तथा अपर्याप्त रोमन वर्णमाला से, जो तीन हजार वर्षों से क्रमशः विकसित हो रही थी, पर्याप्त अंतर है।
ए एल बाशम, "द वंडर दैट वाज इंडिया" के लेखक और इतिहासविद्

भारत के लिये देवनागरी का महत्त्व

इस लेख की निष्पक्षता विवादित है।
कृपया इसके वार्ता पृष्ठ पर चर्चा देखें।

बहुत से लोगों का विचार है कि भारत में अनेकों भाषाएँ होना कोई समस्या नहीं है जबकि उनकी लिपियाँ अलग-अलग होना बहुत बड़ी समस्या है। न्यायमूर्ति शारदा चरण मित्र (१८४८ - १९१७) ने भारत जैसे विशाल बहुभाषा-भाषी और बहुजातीय राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने के उद्देश्य से ‘एक लिपि विस्तार परिषद‘ की स्थापना की थी और परिषद की ओर से १९०७ में ‘देवनागर‘ नामक मासिक पत्र निकाला था जो बीच में कुछ व्यवधान के बावजूद उनके जीवन पर्यन्त अर्थात्‌ सन्‌ १९१७ तक निकलता रहा।

गांधीजी ने १९४० में गुजराती भाषा की एक पुस्तक को देवनागरी लिपि में छपवाया और इसका उद्देश्य बताया था कि मेरा सपना है कि संस्कृत से निकली हर भाषा की लिपि देवनागरी हो।[16]

इस संस्करण को हिंदी में छापने के दो उद्देश्य हैं। मुख्य उद्देश्य यह है कि मैं जानना चाहता हूँ कि, गुजराती पढ़ने वालों को देवनागरी लिपि में पढ़ना कितना अच्छा लगता है। मैं जब दक्षिण अफ्रीका में था तब से मेरा स्वप्न है कि संस्कृत से निकली हर भाषा की एक लिपि हो, और वह देवनागरी हो। पर यह अभी भी स्वप्न ही है। एक-लिपि के बारे में बातचीत तो खूब होती हैं, लेकिन वही ‘बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे’ वाली बात है। कौन पहल करे ! गुजराती कहेगा ‘हमारी लिपि तो बड़ी सुन्दर सलोनी आसान है, इसे कैसे छोडूंगा?’ बीच में अभी एक नया पक्ष और निकल के आया है, वह ये, कुछ लोग कहते हैं कि देवनागरी खुद ही अभी अधूरी है, कठिन है; मैं भी यह मानता हूँ कि इसमें सुधार होना चाहिए। लेकिन अगर हम हर चीज़ के बिलकुल ठीक हो जाने का इंतज़ार करते रहेंगे तो सब हाथ से जायेगा, न जग के रहोगे न जोगी बनोगे। अब हमें यह नहीं करना चाहिए। इसी आजमाइश के लिए हमने यह देवनागरी संस्करण निकाला है। अगर लोग यह (देवनागरी में गुजराती) पसंद करेंगे तो ‘नवजीवन पुस्तक’ और भाषाओं को भी देवनागरी में प्रकाशित करने का प्रयत्न करेगा।
इस साहस के पीछे दूसरा उद्देश्य यह है कि हिंदी पढ़ने वाली जनता गुजराती पुस्तक देवनागरी लिपि में पढ़ सके। मेरा अभिप्राय यह है कि अगर देवनागरी लिपि में गुजराती किताब छपेगी तो भाषा को सीखने में आने वाली आधी दिक्कतें तो ऐसे ही कम हो जाएँगी।
इस संस्करण को लोकप्रिय बनाने के लिए इसकी कीमत बहुत कम राखी गयी है, मुझे उम्मीद है कि इस साहस को गुजराती और हिंदी पढ़ने वाले सफल करेंगे।

इसी प्रकार विनोबा भावे का विचार था कि-

हिन्दुस्तान की एकता के लिये हिन्दी भाषा जितना काम देगी, उससे बहुत अधिक काम देवनागरी लिपि देगी। इसलिए मैं चाहता हूँ कि सभी भाषाएँ देवनागरी में भी लिखी जाएं। सभी लिपियां चलें लेकिन साथ-साथ देवनागरी का भी प्रयोग किया जाये। विनोबा जी "नागरी ही" नहीं "नागरी भी" चाहते थे। उन्हीं की सद्प्रेरणा से 1975 में नागरी लिपि परिषद की स्थापना हुई।

विश्वलिपि के रूप में देवनागरी

बौद्ध संस्कृति से प्रभावित क्षेत्र नागरी के लिए नया नहीं है। चीन और जापान चित्रलिपि का व्यवहार करते हैं। इन चित्रों की संख्या बहुत अधिक होने के कारण भाषा सीखने में बहुत कठिनाई होती है। देववाणी की वाहिका होने के नाते देवनागरी भारत की सीमाओं से बाहर निकलकर चीन और जापान के लिए भी समुचित विकल्प दे सकती है। भारतीय मूल के लोग संसार में जहां-जहां भी रहते हैं, वे देवनागरी से परिचय रखते हैं, विशेषकर मारीशस, सूरीनाम, फिजी, गुयाना, त्रिनिदाद, टोबैगो आदि के लोग। इस तरह देवनागरी लिपि न केवल भारत के अंदर सारे प्रांतवासियों को प्रेम-बंधन में बांधकर सीमोल्लंघन कर दक्षिण-पूर्व एशिया के पुराने वृहत्तर भारतीय परिवार को भी ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय‘ अनुप्राणित कर सकती है तथा विभिन्न देशों को एक अधिक सुचारू और वैज्ञानिक विकल्प प्रदान कर ‘विश्व नागरी‘ की पदवी का दावा इक्कीसवीं सदी में कर सकती है। उस पर प्रसार लिपिगत साम्राज्यवाद और शोषण का माध्यम न होकर सत्य, अहिंसा, त्याग, संयम जैसे उदात्त मानवमूल्यों का संवाहक होगा, असत्‌ से सत्‌, तमस्‌ से ज्योति तथा मृत्यु से अमरता की दिशा में।देवनागरी एक भारतीय लिपि है जिसमें अनेक भारतीय भाषाएँ तथा कई विदेशी भाषाएँ लिखी जाती हैं। यह बायें से दायें लिखी जाती है। इसकी पहचान एक क्षैतिज रेखा से है जिसे ‘शिरोरेखा’ कहते हैं। संस्कृत, पालि, हिन्दी, मराठी, कोङ्कणी, सिन्धी, कश्मीरी, हरियाणवी डोगरी, खस, नेपाल भाषा (तथा अन्य नेपाली भाषाएँ), तमाङ्ग भाषा, गढ़वाली, बोडो, अङ्गिका, मगही, भोजपुरी, नागपुरी, मैथिली, सन्थाली, राजस्थानी बघेली आदि भाषाएँ और स्थानीय बोलियाँ भी देवनागरी में लिखी जाती हैं।

इसके अतिरिक्त कुछ स्थितियों में गुजराती, पञ्जाबी, बिष्णुपुरिया मणिपुरी, रोमानी और उर्दू भाषाएँ भी देवनागरी में लिखी जाती हैं। देवनागरी विश्व में सर्वाधिक प्रयुक्त लिपियों में से एक है। यह दक्षिण एशिया की १७० से अधिक भाषाओं को लिखने के लिए प्रयुक्त हो रही है।

लिपि-विहीन भाषाओं के लिये देवनागरी

दुनिया की कई भाषाओं के लिये देवनागरी सबसे अच्छा विकल्प हो सकती है क्योंकि यह यह बोलने की पूरी आजादी देता है। दुनिया की और किसी भी लिपि में यह नहीं हो सकता है। इन्डोनेशिया, विएतनाम, अफ्रीका आदि के लिये तो यही सबसे सही रहेगा। अष्टाध्यायी को देखकर कोई भी समझ सकता है की दुनिया में इससे अच्छी कोई भी लिपि नहीं है। अग‍र दुनिया पक्षपातरहित हो तो देवनागरी ही दुनिया की सर्वमान्य लिपि होगी क्योंकि यह पूर्णत: वैज्ञानिक है। अंग्रेजी भाषा में वर्तनी (स्पेलिंग) की विकराल समस्या के कारगर समाधान के लिये देवनागरी पर आधारित देवग्रीक लिपि प्रस्तावित की गयी है।

देवनागरी लिपि में सुधार

देवनागरी का विकास उस युग में हुआ था जब लेखन हाथ से किया जाता था और लेखन के लिए शिलाएँ, ताड़पत्र, चर्मपत्र, भोजपत्र, ताम्रपत्र आदि का ही प्रयोग होता था। किन्तु लेखन प्रौद्योगिकी ने बहुत अधिक विकास किया और प्रिन्टिंग प्रेस, टाइपराइटर आदि से होते हुए वह कम्प्यूटर युग में पहुँच गयी है जहाँ बोलकर भी लिखना सम्भव हो गया है। जब प्रिंटिंग एवं टाइपिंग का युग आया तो देवनागरी के यंत्रीकरण में कुछ अतिरिक्त समस्याएँ सामने आयीं जो रोमन में नहीं थीं। उदाहरण के लिए रोमन टाइपराइटर में अपेक्षाकृत कम कुंजियों की आवश्यकता पड़ती थी। देवनागरी में संयुक्ताक्षर की अवधारणा होने से भी बहुत अधिक कुंजियों की आवश्यकता पड़ रही थी। ध्यातव्य है कि ये समस्याएँ केवल देवनागरी में नहीं थी बल्कि रोमन और सिरिलिक को छोड़कर लगभग सभी लिपियों में थी। चीनी और उस परिवार की अन्य लिपियों में तो यह समस्या अपने गम्भीरतम रूप में थी।

इन सामयिक समस्याओं को ध्यान में रखते हुए अनेक विद्वानों और मनीषियों ने देवनागरी के सरलीकरण और मानकीकरण पर विचार किया और अपने सुझाव दिए। इनमें से अनेक सुझावों को क्रियान्वित नहीं किया जा सका या उन्हें अस्वीकार कर दिया गया। कहने की आवश्यकता नहीं है कि कम्प्यूटर युग आने से (या प्रिंटिंग की नई तकनीकी आने से) देवनागरी से सम्बन्धित सारी समस्याएँ स्वयं समाप्त हों गयीं।

भारत के स्वाधीनता आंदोलनों में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त होने के बाद लिपि के विकास व मानकीकरण हेतु कई व्यक्तिगत एवं संस्थागत प्रयास हुए। सर्वप्रथम बम्बई के महादेव गोविन्द रानडे ने एक लिपि सुधार समिति का गठन किया। तदनन्तर महाराष्ट्र साहित्य परिषद पुणे ने सुधार योजना तैयार की। सन १९०४ में बाल गंगाधर तिलक ने अपने केसरी पत्र में देवनागरी लिपि के सुधार की चर्चा की। प्रिणामस्वरूप देवनागरी के टाइपों की संख्या १९० निर्धारित की गयी और इन्हें 'केसरी टाइप' कहा गया।[17]

आगे चलकर सावरकर बंधुओं ने 'अ' की बारहखड़ी प्रयिग करने का सुझाव दिया ( अर्थात् 'ई' न लिखकर अ पर बड़ी ई की मात्रा लगायी जाय)। डॉ गोरख प्रसाद ने सुझाव दिया कि मात्राओं को व्यंजन के बाद दाहिने तरफ अलग से रखा जाय। डॉ. श्यामसुन्दर दास ने अनुस्वार के प्रयोग को व्यापक बनाकर देवनागरी के सरलीकरण के प्रयास किये (पंचमाक्षर के बदले अनुस्वार के प्रयोग )। इसी प्रकार श्रीनिवास का सुझाव था कि महाप्राण वर्ण के लिए अल्पप्राण के नीचे ऽ चिह्न लगाया जाय। १९४५ में काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा अ की बारहखड़ी और श्रीनिवास के सुझाव को अस्वीकार करने का निर्णय लिया गया।[18]

देवनागरी के विकास में अनेक संस्थागत प्रयासों की भूमिका भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही है। १९३५ में हिंदी साहित्य सम्मेलन ने नागरी लिपि सुधार समिति[19] के माध्यम से 'अ' की बारहखड़ी और शिरोरेखा से संबंधित सुधार सुझाए। इसी प्रकार, १९४७ में आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में गठित एक समिति ने बारहखड़ी, मात्रा व्यवस्था, अनुस्वार व अनुनासिक से संबंधित महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये। देवनागरी लिपि के विकास हेतु भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने कई स्तरों पर प्रयास किये हैं। सन् १९६६ में मानक देवनागरी वर्णमाला प्रकाशित की गई और १९६७ में ‘हिंदी वर्तनी का मानकीकरण’ प्रकाशित किया गया। १९८३ में ‘देवनागरी लिपि तथा हिन्दी की वर्तनी का मानकीकरण’ प्रकाशित किया गया।

देवनागरी के सम्पादित्र व अन्य सॉफ्टवेयर

इंटरनेट पर हिन्दी के साधन देखिये।

देवनागरी से अन्य लिपियों में रूपान्तरण

  • ITRANS (iTrans) निरूपण, देवनागरी को लैटिन (रोमन) में परिवर्तित करने का आधुनिकतम और अक्षत (lossless) तरीका है। (Online Interface to iTrans)
  • आजकल अनेक कम्प्यूटर प्रोग्राम उपलब्ध हैं जिनकी सहायता से देवनागरी में लिखे पाठ को किसी भी भारतीय लिपि में बदला जा सकता है। [20]
  • कुछ ऐसे भी कम्प्यूटर प्रोग्राम हैं जिनकी सहायता से देवनागरी में लिखे पाठ को लैटिन, अरबी, चीनी, क्रिलिक, आईपीए (IPA) आदि में बदला जा सकता है। (ICU Transform Demo)
  • यूनिकोड के पदार्पण के बाद देवनागरी का रोमनीकरण (romanization) अब अनावश्यक होता जा रहा है, क्योंकि धीरे-धीरे कम्प्यूटर, स्मार्ट फोन तथा अन्य डिजिटल युक्तियों पर देवनागरी को (और अन्य लिपियों को भी) पूर्ण समर्थन मिलने लगा है।

संगणक कुंजीपटल पर देवनागरी

इंस्क्रिप्ट कुंजीपटल पर देवनागरी वर्ण (Windows, Solaris, Java)

[21]

देवनागरी यूनिकोड

 0123456789ABCDEF
U+090x
U+091x
U+092x
U+093xि
U+094x
U+095xक़ख़ग़ज़ड़ढ़फ़य़
U+096x
U+097xॿ

सन्दर्भ

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

🔥 Top keywords: जय श्री रामराम नवमीश्रीरामरक्षास्तोत्रम्रामक्लियोपाट्रा ७राम मंदिर, अयोध्याहनुमान चालीसानवदुर्गाअमर सिंह चमकीलामुखपृष्ठहिन्दीभीमराव आम्बेडकरविशेष:खोजबड़े मियाँ छोटे मियाँ (2024 फ़िल्म)भारत के राज्य तथा केन्द्र-शासित प्रदेशभारतीय आम चुनाव, 2024इंडियन प्रीमियर लीगसिद्धिदात्रीमिया खलीफ़ाखाटूश्यामजीभारत का संविधानजय सिया रामसुनील नारायणलोक सभाहनुमान जयंतीनरेन्द्र मोदीलोकसभा सीटों के आधार पर भारत के राज्यों और संघ क्षेत्रों की सूचीभारत के प्रधान मंत्रियों की सूचीगायत्री मन्त्ररामायणअशोकप्रेमानंद महाराजभारतीय आम चुनाव, 2019हिन्दी की गिनतीसट्टारामायण आरतीदिल्ली कैपिटल्सभारतश्रीमद्भगवद्गीता