जालियाँवाला बाग हत्याकांडभारत के पंजाब प्रान्त के अमृतसर में स्वर्ण मन्दिर के निकट जलियाँवाला बाग में १३ अप्रैल१९१९ (बैसाखी के दिन) हुआ था। रौलेट एक्ट का विरोध करने के लिए एक सभा हो रही थी जिसमें जनरल डायर नामक एक अँग्रेज ऑफिसर ने अकारण उस सभा में उपस्थित भीड़ पर गोलियाँ चलवा दीं जिसमें 400 से अधिक व्यक्ति मरे[2] और २००० से अधिक घायल हुए।[3][4]अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर कार्यालय में 484 शहीदों की सूची है, जबकि जलियांवाला बाग में कुल 388 शहीदों की सूची है। ब्रिटिश राज के अभिलेख इस घटना में 200 लोगों के घायल होने और 379 लोगों के शहीद होने की बात स्वीकार करते है जिनमें से 337 पुरुष, 41 नाबालिग लड़के और एक 6-सप्ताह का बच्चा था। अनाधिकारिक आँकड़ों के अनुसार 1500 से अधिक लोग मारे गए और 2000 से अधिक घायल हुए।
यदि किसी एक घटना ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर सबसे अधिक प्रभाव डाला था तो वह घटना यह जघन्य हत्याकाण्ड ही था। माना जाता है कि यह घटना ही भारत में ब्रिटिश शासन के अंत की शुरुआत बनी।[5][6]
१९९७ में महारानी एलिज़ाबेथ ने इस स्मारक पर मृतकों को श्रद्धांजलि दी थी। २०१३ में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन भी इस स्मारक पर आए थे। विजिटर्स बुक में उन्होंनें लिखा कि "ब्रिटिश इतिहास की यह एक शर्मनाक घटना थी।"[7]
घटनाक्रम
ऐतिहासिक दिवस
13 अप्रैल1919 को बैसाखी का दिन था। बैसाखी वैसे तो पूरे भारत का एक प्रमुख त्योहार है परंतु विशेषकर पंजाब और हरियाणा के किसान सर्दियों की रबी की फसल काट लेने के बाद नए साल की खुशियाँ मनाते हैं। इसी दिन, 13 अप्रैल1699 को दसवें और अंतिम गुरु गोविंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की थी। इसीलिए बैसाखीपंजाब और आस-पास के प्रदेशों का सबसे बड़ा त्योहार है और सिख इसे सामूहिक जन्मदिवस के रूप में मनाते हैं। अमृतसर में उस दिन एक मेला सैकड़ों साल से लगता चला आ रहा था जिसमें उस दिन भी हज़ारों लोग दूर-दूर से श्री हरमिंदर साहिब गुरुद्वारे में गुरु जी के दर्शन करने और बैसाखी का त्यौहार मनाने अमृतसर पहुंचे थे, गुरुद्वारे से 500 मीटर की दुरी में जलियांवाला बाग को देखने के लिए बहुत सारे बच्चे , महिलाएं, बूढ़े, इकट्ठे हुए थे और बड़ी ही खुशी के साथ बैसाखी का त्यौहार मना रहे थे ।
अंग्रेज़ों की मंशा
प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) में भारतीय नेताओं और जनता ने खुल कर ब्रिटिशों का साथ दिया था। 13 लाख भारतीय सैनिक और सेवक यूरोप, अफ़्रीका और मिडल ईस्ट में ब्रिटिशों की तरफ़ से तैनात किए गए थे जिनमें से 43,000 भारतीय सैनिक युद्ध में शहीद हुए थे। युद्ध समाप्त होने पर भारतीय नेता और जनता ब्रिटिश सरकार से सहयोग और नरमी के रवैये की आशा कर रहे थे परंतु ब्रिटिश सरकार ने मॉण्टेगू-चेम्सफ़ोर्ड सुधार लागू कर दिए जो इस भावना के विपरीत थे।
लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के दौरान पंजाब के क्षेत्र में ब्रिटिशों का विरोध कुछ अधिक बढ़ गया था जिसे भारत प्रतिरक्षा विधान (1915) लागू कर के कुचल दिया गया था। उसके बाद १९१८ में एक ब्रिटिश जज सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता में एक सेडीशन समिति नियुक्त की गई थी जिसकी ज़िम्मेदारी ये अध्ययन करना था कि भारत में, विशेषकर पंजाब और बंगाल में ब्रिटिशों का विरोध किन विदेशी शक्तियों की सहायता से हो रहा था। इस समिति के सुझावों के अनुसार भारत प्रतिरक्षा विधान (1915) का विस्तार कर के भारत में रॉलट एक्ट लागू किया गया था, जो आजादी के लिए चल रहे आंदोलन पर रोक लगाने के लिए था, जिसके अंतर्गत ब्रिटिश सरकार को और अधिक अधिकार दिए गए थे जिससे वह प्रेस पर सेंसरशिप लगा सकती थी, नेताओं को बिना मुकदमें के जेल में रख सकती थी, लोगों को बिना वॉरण्ट के गिरफ़्तार कर सकती थी, उन पर विशेष ट्रिब्यूनलों और बंद कमरों में बिना जवाबदेही दिए हुए मुकदमा चला सकती थी, आदि। इसके विरोध में पूरा भारत उठ खड़ा हुआ और देश भर में लोग गिरफ्तारियां दे रहे थे।
गाँधी जी
गांधी तब तक दक्षिण अफ़्रीका से भारत आ चुके थे और धीरे-धीरे उनकी लोकप्रियता बढ़ रही थी। उन्होंने रोलेट एक्ट का विरोध करने का आह्वान किया जिसे कुचलने के लिए ब्रिटिश सरकार ने और अधिक नेताओं और जनता को रोलेट एक्ट के अंतर्गत गिरफ़्तार कर लिया और कड़ी सजाएँ दीं। इससे जनता का आक्रोश बढ़ा और लोगों ने रेल और डाक-तार-संचार सेवाओं को बाधित किया। आंदोलन अप्रैल के पहले सप्ताह में अपने चरम पर पहुँच रहा था। लाहौर और अमृतसर की सड़कें लोगों से भरी रहती थीं। करीब 5,000 लोग जलियांवाला बाग में इकट्ठे थे। ब्रिटिश सरकार के कई अधिकारियों को यह 1857 के गदर की पुनरावृत्ति जैसी परिस्थिति लग रही थी जिसे न होने देने के लिए और कुचलने के लिए वो कुछ भी करने के लिए तैयार थे।
अंग्रेज़ों के अत्याचार
आंदोलन के दो नेताओं सत्यपाल और सैफ़ुद्दीन किचलू को गिरफ्तार कर कालापानी की सजा दे दी गई। 10 अप्रैल 1919 को अमृतसर के उप कमिश्नर के घर पर इन दोनों नेताओं को रिहा करने की माँग पेश की गई। परंतु ब्रिटिशों ने शांतिप्रिय और सभ्य तरीके से विरोध प्रकट कर रही जनता पर गोलियाँ चलवा दीं जिससे तनाव बहुत बढ़ गया और उस दिन कई बैंकों, सरकारी भवनों, टाउन हॉल, रेलवे स्टेशन में आगज़नी की गई। इस प्रकार हुई हिंसा में 5 यूरोपीय नागरिकों की हत्या हुई। इसके विरोध में ब्रिटिश सिपाही भारतीय जनता पर जहाँ-तहाँ गोलियाँ चलाते रहे जिसमें 8 से 20 भारतीयों की मृत्यु हुई। अगले दो दिनों में अमृतसर तो शाँत रहा पर हिंसा पंजाब के कई क्षेत्रों में फैल गई और 3 अन्य यूरोपीय नागरिकों की हत्या हुई। इसे कुचलने के लिए ब्रिटिशों ने पंजाब के अधिकतर भाग पर मार्शल लॉ लागू कर दिया।
काण्ड का विवरण
बैसाखी के दिन 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में एक सभा रखी गई, जिसमें कुछ नेता भाषण देने वाले थे। शहर में कर्फ्यू लगा हुआ था, फिर भी इसमें सैंकड़ों लोग ऐसे भी थे, जो बैसाखी के मौके पर परिवार के साथ मेला देखने और शहर घूमने आए थे और सभा की खबर सुन कर वहां जा पहुंचे थे। जब नेता बाग में पड़ी रोड़ियों के ढेर पर खड़े हो कर भाषण दे रहे थे, तभी ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर 90 ब्रिटिश सैनिकों को लेकर वहां पहुँच गया। उन सब के हाथों में भरी हुई राइफलें थीं। नेताओं ने सैनिकों को देखा, तो उन्होंने वहां मौजूद लोगों से शांत बैठे रहने के लिए कहा।
गोलीबारी
सैनिकों ने बाग को घेर कर बिना कोई चेतावनी दिए निहत्थे लोगों पर गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं। १० मिनट में कुल 1650 राउंड गोलियां चलाई गईं। जलियांवाला बाग उस समय मकानों के पीछे पड़ा एक खाली मैदान था। वहाँ तक जाने या बाहर निकलने के लिए केवल एक संकरा रास्ता था और चारों ओर मकान थे। भागने का कोई रास्ता नहीं था। कुछ लोग जान बचाने के लिए मैदान में मौजूद एकमात्र कुएं में कूद गए, पर देखते ही देखते वह कुआं भी लाशों से पट गया। जलियांवाला बाग कभी जलली नामक आदमी की संपत्ति थी।
हताहत
बाग में लगी पट्टिका पर लिखा है कि १२० शव तो सिर्फ कुए से ही मिले। शहर में कर्फ्यू लगा था जिससे घायलों को इलाज के लिए भी कहीं ले जाया नहीं जा सका। लोगों ने तड़प-तड़प कर वहीं दम तोड़ दिया। अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर कार्यालय में 484 शहीदों की सूची है, जबकि जलियांवाला बाग में कुल 388 शहीदों की सूची है। ब्रिटिश राज के अभिलेख इस घटना में 200 लोगों के घायल होने और 379 लोगों के शहीद होने की बात स्वीकार करते है जिनमें से 337 पुरुष, 41 नाबालिग लड़के और एक 6-सप्ताह का बच्चा था। अनाधिकारिक आँकड़ों के अनुसार 1000 से अधिक लोग मारे गए और 2000 से अधिक घायल हुए।[8]आधिकारिक रूप से मरने वालों की संख्या ३७९ बताई गई जबकि पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार कम से कम १३०० लोग मारे गए। स्वामी श्रद्धानंद के अनुसार मरने वालों की संख्या १५०० से अधिक थी जबकि अमृतसर के तत्कालीन सिविल सर्जन डॉक्टर स्मिथ के अनुसार मरने वालों की संख्या १८०० से अधिक थी।[9]
करतूत बयानी
मुख्यालय वापस पहुँच कर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को टेलीग्राम किया कि उस पर भारतीयों की एक फ़ौज ने हमला किया था जिससे बचने के लिए उसको गोलियाँ चलानी पड़ी। ब्रिटिश लेफ़्टिनेण्ट गवर्नर मायकल ओ डायर ने इसके उत्तर में ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर को टेलीग्राम किया कि तुमने सही कदम उठाया। मैं तुम्हारे निर्णय को अनुमोदित करता हूँ। फिर ब्रिटिश लेफ़्टिनेण्ट गवर्नर मायकल ओ डायर ने अमृतसर और अन्य क्षेत्रों में मार्शल लॉ लगाने की माँग की जिसे वायसरॉय लॉर्ड चेम्सफ़ोर्ड नें स्वीकृत कर दिया।
जाँच
इस हत्याकाण्ड की विश्वव्यापी निंदा हुई जिसके दबाव में भारत के लिए सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट एडविन मॉण्टेगू ने 1919 के अंत में इसकी जाँच के लिए हंटर कमीशन नियुक्त किया। कमीशन के सामने ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर ने स्वीकार किया कि वह गोली चला कर लोगों को मार देने का निर्णय पहले से ही ले कर वहाँ गया था और वह उन लोगों पर चलाने के लिए दो तोपें भी ले गया था जो कि उस संकरे रास्ते से नहीं जा पाई थीं। हंटर कमीशन की रिपोर्ट आने पर 1920 में ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर को पदावनत कर के कर्नल बना दिया गया और अक्रिय सूचि में रख दिया गया। उसे भारत में पोस्ट न देने का निर्णय लिया गया और उसे स्वास्थ्य कारणों से ब्रिटेन वापस भेज दिया गया। हाउस ऑफ़ कॉमन्स ने उसका निंदा प्रस्ताव पारित किया परंतु हाउस ऑफ़ लॉर्ड ने इस हत्याकाण्ड की प्रशंसा करते हुये उसका प्रशस्ति प्रस्ताव पारित किया। विश्वव्यापी निंदा के दबाव में बाद को ब्रिटिश सरकार ने उसका निंदा प्रस्ताव पारित किया और 1920 में ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर को इस्तीफ़ा देना पड़ा। 1927 में प्राकृतिक कारणों से उसकी मृत्यु हुई।(उधमसिंह नगर पहले नैनीताल जिले में था। लेकिन अक्टूबर 1995 में इसे अलग जिला बना दिया गया। इस जिले का नाम स्वर्गीय उधम सिंह के नाम पर रखा गया है। उधम सिंह स्वतंत्रता सेनानी थे।) ↵इस हत्याकांड की जाँच के लिये कांग्रेस ने मदन मोहन मालवीय की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की। में एक समिति नियुक्त की।
विरोध
गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने इस हत्याकाण्ड के विरोध-स्वरूप अपनी नाइटहुड को वापस कर दिया। आजादी के लिए लोगों का हौसला ऐसी भयावह घटना के बाद भी पस्त नहीं हुआ। बल्कि सच तो यह है कि इस घटना के बाद आजादी हासिल करने की चाहत लोगों में और जोर से उफान मारने लगी। हालांकि उन दिनों संचार और आपसी संवाद के वर्तमान साधनों की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, फिर भी यह खबर पूरे देश में आग की तरह फैल गई। आजादी की चाह न केवल पंजाब, बल्कि पूरे देश के बच्चे-बच्चे के सिर चढ़ कर बोलने लगी। उस दौर के हजारों भारतीयों ने जलियांवाला बाग की मिट्टी को माथे से लगाकर देश को आजाद कराने का दृढ़ संकल्प लिया। पंजाब तब तक मुख्य भारत से कुछ अलग चला करता था परंतु इस घटना से पंजाब पूरी तरह से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सम्मिलित हो गया। इसके फलस्वरूप गांधी ने 1920 में असहयोग आंदोलन प्रारंभ किया।
प्रतिघात
जब जलियांवाला बाग में यह हत्याकांड हो रहा था, उस समय उधमसिंह वहीं मौजूद थे और उन्हें भी गोली लगी थी। उन्होंने तय किया कि वह इसका बदला लेंगे। 13 मार्च 1940 को उन्होंने लंदन के कैक्सटन हॉल में इस घटना के समय ब्रिटिश लेफ़्टिनेण्ट गवर्नर माइकल ओ ड्वायर को गोली चला के मार डाला। [10]ऊधमसिंह को 31 जुलाई 1940 को फाँसी पर चढ़ा दिया गया। गांधी और जवाहरलाल नेहरू ने ऊधमसिंह द्वारा की गई इस हत्या की निंदा करी थी।
इस हत्याकांड ने तब 12 वर्ष की उम्र के भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। इसकी सूचना मिलते ही भगत सिंह अपने स्कूल से १२ मील पैदल चलकर जालियावाला बाग पहुंच गए थे।[11]
स्मारक
१०२० में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा एक प्रस्ताव पारित होने के बाद साइट पर एक स्मारक बनाने के लिए एक ट्रस्ट की स्थापना की गई थी। १९२३ में ट्रस्ट ने स्मारक परियोजना के लिए भूमि खरीदी थी। अमेरिकी वास्तुकार बेंजामिन पोल्क द्वारा डिजाइन किया गया एक स्मारक, साइट पर बनाया गया था और 13 अप्रैल १९६१ को जवाहरलाल नेहरू और अन्य नेताओं की उपस्थिति में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने इसका उद्घाटन किया था।
बुलेट की गोलियाँ दीवारों और आस-पास की इमारतों में इस समय भी दिखती हैं। जिस कुएं में कई लोग कूद गए और गोलियों से खुद को बचाने की कोशिश कर रहे थे, वह पार्क के अंदर एक संरक्षित स्मारक के रूप में है।
जलियाँवाला बाग राष्ट्रीय स्मारक (संशोधन) विधेयक, 2019
राज्यसभा में 19 नवंबर 2019 को पारित होने के पश्चात यह विधेयक संसद से पारित हो गया।इससे पूर्व लोकसभा में 02 अगस्त 2019 को पारित किया गया था।
केंद्रीय संस्कृति मंत्री प्रह्लाद सिंह पटेल ने बिल पेश करते हुए कहा कि जलियांवाला बाग एक राष्ट्रीय स्मारक है तथा घटना के वर्ष 2019 में,100 साल पूरे होने के अवसर पर हम इस स्मारक को राजनीति से मुक्त करना चाहते हैं।
विधेयक में प्रमुख प्रावधान
इस विधेयक के द्वारा जलियांवाला बाग राष्ट्रीय स्मारक अधिनियम 1951 में संशोधन किया गया।
इस संशोधन बिल में जलियांवाला बाग राष्ट्रीय स्मारक अधिनियम में कांग्रेस के अध्यक्ष को स्थायी सदस्य के तौर पर हटाने का प्रावधान है।
विधेयक यह स्पष्ट करता है कि जब लोकसभा में विपक्ष का कोई नेता नहीं होता है, केवल सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को ट्रस्टी बनाया जाएगा.
यह विधेयक केंद्र सरकार को यह अधिकार दिया है कि वह ट्रस्ट के किसी सदस्य को उसका कार्यकाल पूरा होने से पहले ही हटा सकती है.
इस संशोधन के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष का न्यास के पदेन सदस्य होने का हक समाप्त हो जायेगा। उसके जगह पर लोकसभा में विपक्ष के नेता या सबसे बड़े दल के नेता को सदस्य बनाया जायेगा।
जनता द्वारा वित्त पोषित,जलियांवाला बाग ट्रस्ट की स्थापना साल 1921 में की गई थी। इसके नए न्यास का गठन साल 1951 में किया गया।नए न्यास में व्यक्ति विशेष को सदस्य बनाया गया तथा किसी संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति को इसमें शामिल नहीं किया गया था।
अब,सरकार निर्वाचित लोगों को संवैधानिक और प्रशासनिक पदों में शामिल कर रही है।किसी विशेष व्यक्ति को नामित नहीं किया जायेगा।साथ ही, इन सदस्यों को हर पांच साल के बाद बदल दिया जायेगा।साथ ही, शहीदों के परिजनों को भी ट्रस्ट में शामिल किया जायेगा।[12]
इन्हें भी देखें
मानगढ़ नरसंहार -- १७ नवम्बर १९१३ को मानगढ़ में भील समुदाय के हजारों लोगों को अंग्रेज़ सरकार ने गोली बरसाकर हत्या कर दी थी।
Brown, Emily (1973), (in Book Reviews; South Asia). The Journal of Asian Studies, Vol. 32, No. 3. (May, 1973), pp. 522-523, Pacific Affairs, University of British Columbia.
Brown, Giles (1948), द हिन्दू Conspiracy, 1914-1917.The Pacific Historical Review, Vol. 17, No. 3. (Aug., 1948), pp. 299-310, University of California Press, ISSN 0030-8684.
Cell, John W (2002), Hailey: A Study in British Imperialism, 1872-1969, Cambridge University Press, ISBN 0521521173.
Gupta, Amit K (1997), Defying Death: Nationalist Revolutionism in India, 1897-1938.Social Scientist, Vol. 25, No. 9/10. (Sep. - Oct., 1997), pp. 3-27, Social Scientist, ISSN: 09700293.
Hoover, Karl. (1985), द हिन्दू Conspiracy in California, 1913-1918. German Studies Review, Vol. 8, No. 2. (May, 1985), pp. 245-261, German Studies Association, ISBN 01497952.
Hopkirk, Peter (1997), Like Hidden Fire: The Plot to Bring Down the British Empire., Kodansha Globe, ISBN 1568361270.
Sarkar, B.K. (1921), Political Science Quarterly, Vol. 36, No. 1. (Mar., 1921), pp. 136-138, The Acedemy of Political Science, ISSN: 00323195.
Sarkar, Sumit (1983), Modern India, 1885-1947, Delhi:Macmillan, ISBN 9780333904251.
Strachan, Hew (2001), The First World War. Volume I: To Arms, Oxford University Press. USA, ISBN 0199261911.
Tinker, Hugh (1968), India in the First World War and after.Journal of Contemporary History, Vol. 3, No. 4, 1918-19: From War to Peace. (Oct., 1968), pp. 89-107, Sage Publications, ISSN: 00220094.
बाहरी कड़ियाँ
An NPR interview with Bapu Shingara Singh - the last known surviving witness.