संरक्षक संत

संरक्षक संत, पितृनामी संत या स्वर्गीय रक्षक, ईसाई समुदाय के रोमन कैथोलिक धर्म, आंग्लवाद या पूर्वी प्राच्यवाद संप्रदायों में, एक संत होते हैं जिन्हें किसी राष्ट्र, स्थान, शिल्प, गतिविधि, वर्ग, कबीले, परिवार या व्यक्ति का स्वर्गीय अधिवक्ता या रक्षक माना जाता है।[1][2] यूरोपीय सभ्यता में आध्यात्मिक तौरपर, मध्यकाल के दौरान संरक्षक संत परंपरा की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। प्रत्येक संत को समर्पित एक विशेष दिन होता है, जिसमें उन्हें विशेष प्रार्थना प्रेषित की जाती है, तथा उस दिन को उनके नाम से मनाया जाता है। इस्लाम में जहाँ संतों की ओर से संरक्षण का कोई संहिताबद्ध सिद्धांत नहीं है, फिर भी सुन्नी तथा शिया दोनों परंपराओं में संरक्षक संतों और वलीयों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।[3]

विभिन्न देशों व क्षेत्रों के संरक्षक संत; संत बेनेडिक्ट:यूरोप के संरक्षक संत, संत जॉर्ज:मध्य पूर्व के संरक्षक संत, मूसा अल-हबाशी:अफ्रीका के संरक्षक संत, संत फ्रांसिस जेवियर: भारतएशिया के संरक्षक संत, संत गुआदोपूप: अमेरिका के संरक्षक संत, पीटर चैनल: ओशिनिया के संरक्षक संत

ईसाईयत

संतों की मान्यता, वंदना और "स्मरणोत्सव" मानाने का अभ्यास रोमन कैथोलिक धर्म, पूर्वी कैथोलिक धर्म, पूर्वी रूढ़िवादी, ओरिएंटल रूढ़िवादी और लूथरन और एंग्लिकन में पाया जाता है। कैथोलिकों का मानना है कि संरक्षक संत, जो पहले से ही तत्वमीमांसा में स्थानांतरित हो चुके हैं, अपने विशेष आवेशों की आवश्यकताओं के लिए प्रभावी ढंग से हस्तक्षेप करने में सक्षम हैं।[4]

हालाँकि, यह आमतौर पर कैल्विनवाद जैसी अधिकांश प्रोटेस्टेंट शाखाओं में हतोत्साहित किया जाता है, जहाँ इस प्रथा को मूर्तिपूजा का एक रूप माना जाता है।[5]

इस्लाम

इस्लाम में हालाँकि संतों की कोई संहिताबद्ध सिद्धांत नहीं है, फिर भी सुन्नी तथा शिया दोनों परंपराओं में संरक्षक संतों और वलीयों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।तथा अनेक सूफी संतों को किसी राष्ट्र, स्थान, शिल्प, वर्ग या कबीले का रक्षक माना जाता रहा है[3]

हालाँकि, सुन्नी इस्लाम के भीतर की वहाबी और सलफी पंथ संतों की वंदना (संरक्षक या अन्यथा किसी भी रूप में) पर तीव्र आलोचना और विरोध करते हैं, उनके विचारधारा के अनुसार यह दावा है की वलियों की वंदना करना तथा मज़ारों पर इबादत करना कि मूर्तिपूजा और शिर्क के रूप हैं। १८वीं शताब्दी में पहली बार वहाबीवाद के सामने आने के बाद से, तथा उसका प्रभाव बढ़ने के वजह से अधिक मुख्यधारा के सुन्नी मौलवियों ने इस तर्क की समर्थन किया है। आलोचकों द्वारा व्यापक विरोध न होने के प्रभाव से, सुन्नी दुनिया में संतों की व्यापक वंदना २०वीं सदी से वहाबी और सलफी प्रभाव के तहत घट गई है।[6]

दीर्घा

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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