कर्बला का युद्ध

680 में उमर इब्न साद और हुसैन इब्न अली के बीच लड़ाई

कर्बला का युद्ध या करबाला की लड़ाई, वर्तमान इराक में करबाला शहर में इस्लामिक कैलेंडर 10 मुहर्रम 61 हिजरी (10 अक्टूबर, 680 ईस्वी) में हुई थी।[6] यह लड़ाई पैगम्बर [[मुहम्मदصلی اللہ علیہ و آلہ و سلم] के नवासे हजरत इमाम हुसैन इब्न अली के समर्थकों और रिश्तेदारों के एक छोटे समूह के और उमय्यद अत्यचारी शासक याजीद प्रथम की एक बड़ी सैन्य अलगाव के बीच हुई थी। और इस लड़ाई में हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहू अलाहिवासलम के नवासे हजरत हुसैन रजी० की फतह हुई

कर्बला की लड़ाई
framless
हजरत इमाम हुसैन का रौज़ा (धर्मस्थल)।
तिथि10 मोहर्रम 61 हि., 10 अक्टूबर 680 ईस्वी
स्थानकर्बला
परिणामउमय्यद सेना विजय

हजरत इमाम हुसैन इब्न अली और उनके परिवार और साथियों को शहीद कर दिया था

योद्धा
उमय्यद खिलाफतहजरत हुसैन इब्न अली
सेनानायक
ओबैदुल्ला इब्न ज़ियाद
उमर इब्न साद
शिमर इब्न थिल-जौशन
अल-हुर इब्न याजीद अल तामीमी
(दल परिवर्तन किया)A
हजरत इमाम हुसैन इब्न अली 
अल-अब्बास इब्न अली 
हबीब इब्न मुजाहिर 
जुहायरे इब्न कयन 
अल-हुर इब्न याजीद अल तामीमी  
शक्ति/क्षमता
4,000[1] or 5,000[2] – 30,000[2]70-150 (आम सहमति 110; छह महीने के बच्चे सहित).[3][4]आम संख्या '72' सिरों की संख्या से आता है।
मृत्यु एवं हानि
2200 मारे गए, और कुछ घायल हो गए[5]72-136 शहीद हुए
^A हजरत हूर मूल रूप से इब्न ज़ियाद सेना के कमांडरों में से एक थे लेकिन 10 मुहर्रम 61 हि. 10 अक्टूबर, 680 ईस्वी पर अपने बेटे, नौकर और भाई के साथ हजरत हुसैन के प्रति निष्ठा बदल दी

परिचय

करबला की लडा़ई मानव इतिहास कि एक बहुत ही जरूरी घटना है। यह सिर्फ एक लड़ाई ही नहीं बल्कि जिन्दगी के सभी पहलुओं की मार्ग दर्शक भी है। इस लड़ाई की बुनियाद तो हज़रत [[मुहम्मद|मुहम्मद मुस्तफ़ाصلی اللہ علیہ و آلہ و سلم] के देहान्त के बाद रखी जा चुकी थी। इमाम अली अ० का ख़लीफ़ा बनना कुछ अधर्मी लोगो को पसंद नहीं था तो कई लडा़ईयाँ हुईं अली अ० को शहीद कर दिया गया, तो उनके पश्चात हजरत इमाम हसन इब्न अली अ० खलीफा बने उनको भी शहीद कर दिया गया।

उस समय का बना हुआ शासक यजीद माना जाता हैं कि दुष्ट और अत्यचारी था और अपनी हुकूमत में गैर इस्लामिक काम किया करता था, इराक और कूफ़ा के लोगो ने हजरत इमाम हुसैन को कई खत लिख कर कूफ़ा आने को कहा ताकि वो उनके हाथों में बैत कर के उन्हें अपना खलीफा बनाये लेकिन यज़ीद चाहता था कि हुसैन उसके साथ हो जाएं, वह जानता था अगर हुसैन उसके साथ आ गए तो सारा इस्लाम उसकी मुट्ठी में होगा। लाख दबाव के बाद भी हुसैन ने उसकी किसी भी बात को मानने से इनकार कर दिया, तो यजीद ने हुसैन को रोकने की योजना बनाई। चार मई, 680 ई. में इमाम हुसैन मदीने में अपना घर छोड़कर शहर मक्के पहुंचे, जहां उनका हज करने का इरादा था लेकिन उन्हें पता चला कि दुश्मन हाजियों के भेष में आकर उनका कत्ल कर सकते हैं। हुसैन ये नहीं चाहते थे कि काबा जैसे पवित्र स्थान पर खून बहे, फिर इमाम हुसैन ने हज का इरादा बदल दिया और शहर कूफे की ओर चल दिए। रास्ते में दुश्मनों की फौज उन्हें घेर कर कर्बला ले आई।

इमाम हुसैन ने कर्बला में जिस जमीन पर अपने खेमे (तम्बू) लगाए, उस जमीन को पहले इमाम हुसैन ने खरीदा, फिर उस स्थान पर अपने खेमे लगाए। यजीद अपने सरदारों के द्वारा लगातार इमाम हुसैन पर दबाव बनाता गया कि हुसैन उसकी बात मान लें, जब इमाम हुसैन ने यजीद की शर्तें नहीं मानी, तो दुश्मनों ने अंत में नहर पर फौज का पहरा लगा दिया और हुसैन के खेमों में पानी जाने पर रोक लगा दी गई। यज़ीद की फौज को देख कर कूफ़ा इराक के लोग जिन्होंने इमाम हुसैन को बुलाया था अपना खलीफा बनाने के लिए उन्होंने ने भी साथ छोड़ दिया।

तीन दिन गुजर जाने के बाद जब इमाम के परिवार के बच्चे प्यास से तड़पने लगे तो हुसैन ने यजीदी फौज से पानी मांगा, दुश्मन ने पानी देने से इंकार कर दिया, दुश्मनों ने सोचा इमाम हुसैन प्यास से टूट जाएंगे और हमारी सारी शर्तें मान लेंगे। जब हुसैन तीन दिन की प्यास के बाद भी यजीद की बात नहीं माने तो दुश्मनों ने हुसैन के खेमों पर हमले शुरू कर दिए। इसके बाद इमाम हुसैन ने दुश्मनों से एक रात का समय मांगा और उस पूरी रात इमाम हुसैन और उनके परिवार ने अल्लाह की इबादत की और दुआ मांगते रहे कि मेरा परिवार, मेरे मित्र चाहे शहीद हो जाए, लेकिन अल्लाह का दीन 'इस्लाम', जो नाना (मोहम्मदصلی اللہ علیہ و آلہ و سلم) लेकर आए थे, वह बचा रहे।

10 अक्टूबर, 680 ई. को सुबह नमाज के समय से ही जंग छिड़ गई जंग तो कहना ठीक न होगा, क्योंकि एक ओर लाखों की फौज थी, दूसरी तरफ 72 सदस्यों का परिवार और उनमें कुछ मर्द, लेकिन इतिहासकार जंग ही लिखते हैं। वैसे इमाम हुसैन के साथ केवल 75 या 80 मर्द थे, जिसमें 6 महीने से लेकर 13 साल तक के बच्चे भी शामिल थे। इस्लाम की बुनियाद बचाने में कर्बला में 72 लोग शहीद हो गए, जिनमें दुश्मनों ने छह महीने के बच्चे अली असगर के गले पर तीन नोक वाला तीर मारा, 13 साल के बच्चे हजरत कासिम को जिन्दा रहते घोड़ों की टापों से रौंद डलवाया और सात साल आठ महीने के बच्चे औन-मोहम्मद के सिर पर तलवार से वार कर शहीद कर दिया था।

इन्हें भी देखें

अन्य विकि परियोजनाओं में

सन्दर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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