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अल-हुजुरात

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सूरा अल-हुजुरात (इंग्लिश: Al-Hujurat) इस्लाम के पवित्र ग्रन्थ कुरआन का 49 वां सूरा (अध्याय) है। इसमें 18 आयतें हैं।

नाम

सूरा 'अल-हुजुरात'[1]या सूरा अल्-ह़ुजुरात[2]आयत 4 वाक्यांश “जो लोग तुम्हें कमरों (हुजुरात) के बाहर से पुकारते हैं" से उद्धृत है। आशय यह है कि वह सूरा जिसमें अल-हुजुरात शब्द आया है।

अवतरणकाल

मदनी सूरा अर्थात् पैग़म्बर मुहम्मद के मदीना के निवास के समय हिजरत के पश्चात अवतरित हुई।

यह बात उल्लेखों से भी ज्ञात होती है और सूरा की वार्ताओं से भी इसकी पुष्टि होती है कि यह सूरा विभिन्न अवसरों पर अवतरित आदेशों और निर्देशों का संग्रह है, जिन्हें विषय की अनुकूलता के कारण एकत्र कर दिया गया है। इसके अतिरिक्त उल्लेखों से यह भी मालूम होता है कि इसमें से अधिकतर आदेश मदीना तैबा के अन्तिम समय में अवतरित हुए हैं।

विषय और वार्ताएँ

इस्लाम के विद्वान मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी लिखते हैं कि

इस सूरा का विषय मुसलमानों को उन शिष्ट नियमों की शिक्षा देना है जो ईमानवालों के गौरव के अनुकूल हैं। आरम्भिक पाँच आयतों में उनको वह नियम सिखाया गया है जिसका उन्हें अल्लाह और उसके रसूल के मामले में ध्यान रखना चाहिए। फिर यह आदेश दिया गया है कि यदि किसी व्यक्ति या गिरोह या क़ौम के विरुद्ध कोई सूचना मिले तो ध्यान से देखना चाहिए कि सूचना मिलने का माध्यम विश्वसनीय है या नहीं। भरोसे के योग्य न हो तो उसपर कार्यवाही करने से पहले जाँच-पड़ताल कर लेनी चाहिए कि सू चना सही है या नहीं, तदनन्तर यह बताया गया कि यदि किसी समय मुसलमानों के दो गिरोह आपस में लड़ पड़ें तो इस स्थिति में अन्य मुसलमानों को क्या नीति अपनानी चाहिए। फिर मुसलमानों को उन बुराइयों से बचने की ताकीद की गई है जो सामाजिक जीवन में बिगाड़ पैदा करती हैं और जिनके कारण आपस के सम्बन्ध बिगड़ जाते हैं। इसके बाद उन जातीय और वंशगत भेदभाव पर चोट की गई है जो संसार में व्यापक बिगाड़ के कारणबनते हैं। (इस सिलसिले में) सर्वोच्च अल्लाह ने यह कहकर इस बुराई की जड़ काट दी है कि समस्त मानव एक ही मूल से पैदा हुए हैं और जातियों और क़बीलों में इनका विभक्त होना परिचय के लिए है न कि आपस में गर्व के लिए। और एक मनुष्य पर दूसरे मनुष्य की श्रेष्ठता के लिए नैतिक श्रेष्ठता के सिवा और कोई वैध आधार नहीं है। अन्त में लोगों को बताया गया है कि मौलिक चीज़ ईमान का मौखिक दावा नहीं है, बल्कि सच्चे दिल से अल्लाह और उसके रसूल को मानना, व्यवहारतः आज्ञाकारी बनकर रहना और शुद्ध हृदयता के साथ अल्लाह की राह में अपनी जान और माल खपा देना है।

सुरह "अल-हुजुरात का अनुवाद

बिस्मिल्ला हिर्रह्मा निर्रहीम अल्लाह के नाम से जो दयालु और कृपाशील है।

इस सूरा का प्रमुख अनुवाद:

क़ुरआन की मूल भाषा अरबी से उर्दू अनुवाद "मौलाना मुहम्मद फ़ारूक़ खान", उर्दू से हिंदी "मुहम्मद अहमद"[3]ने किया।

बाहरी कडियाँ

इस सूरह का प्रसिद्ध अनुवादकों द्वारा किया अनुवाद क़ुरआन प्रोजेक्ट पर देखेंAl-Hujurat 49:1

पिछला सूरा:
अल-फ़तह
क़ुरआनअगला सूरा:
क़ाफ़
सूरा 49 - अल-हुजुरात

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सन्दर्भ

इन्हें भी देखें

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