अल-अहक़ाफ़

इस्लाम के पवित्र ग्रन्थ कुरआन का 46 वां सूरा (अध्याय) है।
(अल-अहकाफ से अनुप्रेषित)

सूरा अल-अहक़ाफ़ (इंग्लिश: Al-Ahqaf) इस्लाम के पवित्र ग्रन्थ कुरआन का 46 वां सूरा (अध्याय) है। इसमें 35 आयतें हैं।

नाम

सूरा 'अल-अहक़ाफ़[1]या सूरा अल्-अह़्क़ाफ़[2]नाम आयत 21 के वाक्यांश “जब कि उसने अक़ाफ़ में अपनी क़ौम को सावधान किया था” से उद्धृत है।

अवतरणकाल

मक्कन सूरा अर्थात् पैग़म्बर मुहम्मद के मक्का के निवास के समय हिजरत से पहले अवतरित हुई।

इस्लाम के विद्वान मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी लिखते हैं कि

एक ऐतिहासिक घटना के अनुसार , जिसका उल्लेख आयत 29-32 में आया है कि , यह सूरा सन् 10 नबवी के अन्त में या सन् 11 नबवी के आरम्भिक काल में अवतरित हुई ।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

सन् 10 नबवी नबी (सल्ल.) के पवित्र जीवन में अत्यन्त कठिनाई का वर्ष था। तीन वर्ष से कुरैश के सभी क़बीलों ने मिलकर बनी हाशिम और मुसलमानों का पूर्णतः सामाजिक बहिष्कार कर रखा था और नबी (सल्ल.) अपने घराने और अपने साथियों के साथ अबू तालिब की घाटी में घिरकर रह गए थे। कुरैश के लोगों ने हर तरफ़ से इस मुहल्ले की नाकाबन्दी कर रखी थी , जिससे गुज़रकर किसी प्रकार की रसद अन्दर न पहुँच सकती थी। निरन्तर तीन वर्ष के इस सामाजिक बहिष्कार ने मुसलमानों और बनी हाशिम की कमर तोड़कर रख दी थी। और उन पर ऐसे-ऐसे कठिन समय बीत गए थे जिनमें अधिकांश समय घास और पत्ते खाने की नौबत आ जाती थी। किसी तरह यह घेराव इस वर्ष टूटा ही था कि नबी (सल्ल.) के चचा अबू तालिब का, जो दस वर्ष से आपके लिए ढाल बने हुए थे , देहान्त हो गया। और इस घटना को घटित हुए मुश्किल से एक महीना हुआ था कि आप (सल्ल.) की जीवन संगिनी हज़रत ख़दीजा (रजि.) का भी देहान्त हो गया, जो नुबूवत के आरम्भ से लेकर उस वक्त तक आपके लिए शान्ति और सान्त्वना का कारण बनी रही थीं। इन निरन्तर आघातों और दुखों के कारण नबी (सल्ल.) इस वर्ष को 'आमुल हुज़्न' (शोक का वर्ष ) कहा करते थे। हज़रत ख़दीजा और अबू तालिब के देहान्त के पश्चात् मक्का के काफ़िर नबी (सल्ल.) के मुक़ाबले में और अधिक दुस्साहसी हो गए। पहले से अधिक आपको तंग करने लगे। यहाँ तक कि आपका घर से निकलना भी मुश्किल हो गया।अनततः आप इस इरादे से ताइफ़ गए कि बनी सक़ीफ़ को इस्लाम की ओर बुलाएँ और यदि वे इस्लाम स्वीकार न करें तो उन्हें कम-से-कम इस बात पर आमादा करें कि वे आपको अपने यहाँ चैन से बैठकर काम करने का अवसर दे दें। किन्तु (वहाँ के बड़े लोगों ने) न केवल यह कि आपकी कोई बात न मानी बल्कि आपको नोटिस दे दिया कि उनके नगर से निकल जाएँ। विवश होकर आपको ताइफ़ छोड़ देना पड़ा। जब आप वहाँ से निकलने लगे तो सक़ीफ़ के सरदारों ने अपने यहाँ के लफंगों को आपके पीछे लगा दिया । वे रास्ते के दोनों तरफ़ दूर तक आपपर व्यंग्य करते, गालियाँ देते और पत्थर मारते चले गए , यहाँ तक कि आप (सल्ल.) जख़्मों से चूर गए और आपकी जूतियाँ खून से भर गईं। इसी हालत में आप ताइफ़ के बाहर एक बाग़ की दीवार की छाया में बैठ गए और अपने रब से (दुआ करने में लग गए।) टूटा दिल लेकर और दुखी होकर पलटे। जब आप क़र्रनुल मनाज़िल के निकट पहुँचेतो ऐसा लगा कि आकाश में एक बादल-सा छाया हुआ है। निगाह उठाकर देखा तो जिबरील (अलै.) सामने थे। उन्होंने पुकार कर कहा “आपकी क़ौम ने जो कुछ आपको जवाब दिया है, अल्लाह ने उसको सुन लिया। अब यह पर्वतों का प्रबन्धक फ़रिश्ता अल्लाह ने भेजा है, आप जो हुक्म देना चाहें इसे दे सकते हैं। " फिर पहाड़ों के फ़रिश्ते ने आपको सलाम करके निवेदन किया, “आप कहें तो दोनों तरफ़ के पहाड़ इन लोगों पर उलट दूं।" आपने जवाब दिया, “नहीं, बल्कि मैं आशा रखता हूँ कि अल्लाह इनके वंश से ऐसे लोगों को पैदा करेगा , जो एक अल्लाह की, जिसका कोई साझी नहीं है, बन्दगी करेंगे।” (हदीस : बुखारी)

इसके बाद आप कुछ दिन नख़ला के स्थान पर जाकर ठहर गए। इन्हीं दिनों में एक दिन रात को आप नमाज़ में कुरआन का पाठ कर रहे थे कि जिन्नों के एक गिरोह का उधर से गुज़र हुआ। उन्होंने कुरआन सुना , ईमान लाए , वापस जाकर अपनी क़ौम में इस्लाम का प्रचार शुरू कर दिया। और अल्लाह ने अपने नबी (सल्ल.) को यह ख़ुशख़बरी सुनाई कि मनुष्य चाहे आपके आमंत्रण से भाग रहे हों , किन्तु बहुत - से जिन उसके आसक्त हो गए हैं और वे उसे अपनी जाति में फैला रहे हैं।

विषय और वार्ताएँ

मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी लिखते हैं कि सूरा का विषय काफ़िरों को उनकी गुमराहियों से सचेत करना है, जिनमें वे केवल यही नहीं कि ग्रस्त थे, बल्कि बड़ी हठधर्मी और गर्व और अहंकार के साथ उनपर जमे हुए थे । उनकी दृष्टि में दुनिया की हैसियत केवल एक निरुद्देश्य खिलौने की थी और उसके अन्दर अपने आपको वे 'अनुत्तरदायी प्राणी' समझ रहे थे। एकेश्वरवाद का बुलावा उनके विचार में असत्य था। वे कुरआन के सम्बन्ध में यह मानने को तैयार न थे कि यह जगत् के प्रभु की वाणी है। उनकी दृष्टि में इस्लाम के सत्य न होने का एक बड़ा प्रमाण यह था कि केवल कुछ नव-युवक , थोड़े-से निर्धन लोग और कुछ गुलाम ही उसपर ईमान लाए हैं। वे क़ियामत और जीवन-मृत्यु के पश्चात् और प्रतिदान और दण्ड की बातों को मनगढन्त कहानी समझते थे। इस सूरा में संक्षिप्त रूप से इन्हीं गुमराहियों में से एक-एक का तर्कयुक्त खण्डन किया गया है और काफ़िरों को सावधान किया गया है कि कुरआन के आमंत्रण को रद्द कर दोगे तो तुम स्वयं ही अपना परिणाम बिगाड़ोगे।

सुरह "अल-अहक़ाफ़ का अनुवाद

बिस्मिल्ला हिर्रह्मा निर्रहीम अल्लाह के नाम से जो दयालु और कृपाशील है।

इस सूरा का प्रमुख अनुवाद:

क़ुरआन की मूल भाषा अरबी से उर्दू अनुवाद "मौलाना मुहम्मद फ़ारूक़ खान", उर्दू से हिंदी "मुहम्मद अहमद"[3]ने किया।

बाहरी कडियाँ

इस सूरह का प्रसिद्ध अनुवादकों द्वारा किया अनुवाद क़ुरआन प्रोजेक्ट पर देखेंAl-Ahqaf 46:1

पिछला सूरा:
अल-जासिया
क़ुरआनअगला सूरा:
मुहम्मद
सूरा 46 अल-अहक़ाफ़

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इन्हें भी देखें

सन्दर्भ:

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